क्यों हूँ परायी
क्यों हूँ परायी
बड़ा नाज़ करते हैं वे
जिनके घर बेटे जन्म लेते हैं
और बेटी के जन्म लेते ही
क्यों सवाल मन में पनपते हैं
क्यों ऐसी समाज की
प्रथा है यह अजीब
बेटी को मानते है पराया
और बेटे हैं दिल के करीब
समाज में बेटियों को
पाला जाता है बड़ी सावधानी से
एक विवश्ता है सामाजिक
जाना होता है उस संसार से
दस्तूर निराला है दुनिया का
माना जाता है उसको पराया धन
गैरों को होता है अपनाना
टूट जाता है उसका उस घर से बंधन
बेटी जिस आँगन की
होती है खूबसूरत फुलवारी
और होती है माँ बाप की परछाई
फिर भी कहलाती है परायी
योगदान रहता हैं उसका भरपूर
माता-पिता के संसार में
बेटों की तरह ही प्यार करती है
मगन रहती है उनके प्यार में
कोमल भावों से हमेशा
भरी रहती है उसकी काया
खुशियां घर की महकाती है
बनके हमेशा ठंडी छाया
रस्मों, रिवाजों, संस्कारों का
सम्मान करतीं हैं मन से
न खुद को भागीदार मानती है
न लालच होता है पिता के धन से
जो कोख जन्म देती है बेटों को
उसी कोख से वह जन्म लेती है
समझाया जाता है जब कि तू है परायी
बस वापस मुस्कुरा देती है
बड़े होते ही घर दुसरे के
वह जब हिस्सा बन जाती है
"बहू" का ठप्पा लग जाता है
अलग रंग में रंग जाती है
सखियाँ छूटती हैं छूटता है घर
खेलनी होती है अब नई बारी
नई दुनिया की नई रीतियाँ
होती हैं अब निभानी
जिस घर जाती है वह अब
पति का घर कहलाता है
यहाँ भी रहती है वह परायी
वक्त यही समझाता है
अब पीहर होता है पराया
और पराया है ससुराल भी
पहचान खुद की ढूंढ़ती रहती है
वह अपने पूरे जीवनकाल ही
यह कैसी प्रथा है समाज की
जो युगों से चली आ रही है
स्त्री हर हाल में क्यों है परायी
यह पहेली है जो न कभी बुझाई गई है।