प्रेम
प्रेम
फ़िज़ाओं में प्रेम की रंगत बिखरी पड़ी है,
लालिमा लिए जब सूर्य पूरब दिशा से
आता है।
मानो चाँद से मिलन के बाद हया से
कपोलों पर छाई लालिमा हौले से
धरा पर उतर जाता है।
ओस की बूँदें जो पत्तों पर बिखरी पड़ी थी,
थी इंतजार में आतुर सूर्य के ताप से
मिलन को
और मिलन के बाद वह चुपचाप वाष्प बनकर
वातावरण में घुल जाती है।
प्रेम का यह रूप परे हैं दुनियावी लोकाचार
रीति रिवाज से,
सामाजिक मर्यादाओं से और सांसारिक बंधनों से
मगर प्रेम की यह रंगत ही
प्रेम के अस्तित्व को बचाता है।
दर्द में भींगा हो मन
तभी बाँटते हम किसी से सारा गम
और हो जाती है राहत धड़कनों को
और प्रेम का यह अस्तित्व निश्छल निर्मल
प्रेम की पवित्रता को सदा ही बचाता है।
नदी की कल कल ध्वनि जब किनारों से टकराकर
लौटती है धारा के संग विलीन होने को
प्रेम का यह सुंदरतम रूप
जिंदगी का असली मायने समझाता है।