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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत-३०६ः भक्ति ज्ञान और यम नियमादि साधनों का वर्णन

श्रीमद्भागवत-३०६ः भक्ति ज्ञान और यम नियमादि साधनों का वर्णन

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श्री कृष्ण कहें, ज्ञानी पुरुष का

अभीष्ट पदार्थ हूँ बस मैं ही

और मैं ही हूँ उसके साधन

साध्य, स्वर्ग और उपवर्ग भी।


वह प्रेम नही करता है

मेरे अतिरिक्त किसी भी पदार्थ से

ज्ञानी पुरुष मुझे सबसे प्रिय है

धारण करे वो मुझे अन्तकरण में।


इसलिए तुम ज्ञान के सहित

जान लो अपने आत्मस्वरूप को

ज्ञान, विज्ञान से सम्पन्न होकर फिर

भक्तिभाव से मेरा भजन करो।


परम सिद्धियाँ प्राप्त कीं ऐसे ही

बड़े बड़े ऋषि मुनियों ने

यह शरीर तो असत्य है

सत्य नही हो सकता क्योंकि ये।


पहले नही था, बाद में भी ना होगा

इसलिए बीच में भी कोई अस्तित्व ना उसका

उद्धव जो ने कहा, हे भगवन

आप को विश्व का स्वामी मैं मानता।


आप का विशुद्ध ज्ञान ये

जिस प्रकार सुदृढ़ हो जाए

स्पष्ट करके उसी प्रकार से

अब आप समझाइए उसे मुझे।


भक्तियोग का भी वर्णन कीजिए

ब्रह्मदि भी ढूँढा करते जिसे

महानुभाव आपका ये सेवक

पड़ा हुआ है अंधेरे कुएँ में।


कालरूपी सर्प ने डस रखा इसे

फिर भी क्षुद्र विषयों भोगों की

तीव्र तृष्णा मिटती नही, बल्कि

वो तो है बढ़ती ही जाती।


उद्धार कीजिए कृपा करके इसका

ये सब सुन भगवान कृष्ण ने कहा

यही प्रश्न भीष्मपिता को

युधिष्ठिर ने भी पहले किया था।


तब उन्होंने भीष्मपिता से

बहुत से धर्मों का विवरण सुनने के

पश्चात मोक्ष के सम्बंध में

साधनों का प्रश्न किया उनसे।


भीष्मपितामह के मुख से सुने हुए

मोक्षधर्म सुनाऊँगा अब मैं तुम्हें

जिस ज्ञान से पुरुष, प्रकृति, महतत्व

अहंकार और पंचतन्मात्रा नौ ये।


पाँच ज्ञानेंद्रिय, पाँच कर्मेंद्रियाँ

और एक मन, ग्यारह जो

पाँच महाभूत और तीन गुण

समेत इन अठाईस तत्वों को।


ब्रह्मा से लेकर तृण तक

देखा जाता सम्पूर्ण कार्यों में

और उनमें से भी एक परमात्मतत्व को

देखा जाता अनुगत रूप में।


यह परोक्ष ज्ञान है, ये निश्चय मेरा

विवेकी पुरुष को चाहिए कि

स्वर्गादि फल देने वाले कर्मों को 

और परिणामी सुखों को भी।


दुखदाई नाशवान समझे वो

विषय सुखों के समान ही

मैं श्रेष्ठ साधन बतलाता

जिससे भक्ति की प्राप्ति होती।


मेरी भक्ति प्राप्त करने के लिए

श्रद्धा करके मेरी कथा में

निरंतर मेरे गुण, लीला, नामों का

संकीर्तन करे, मेरी पूजा करे।


स्तोत्रों द्वारा स्तुति करे मेरी

प्रेम रखे मेरी सेवा में

और मेरे भक्तों की पूजा

मुझसे भी बढ़कर वो करे।


समस्त प्राणियों में मुझे ही देखे

सबकुछ करे मेरे लिए ही

वाणी से मेरे गुणों का गान हो

समर्पित करदे सब मुझे ही।


सारी कामनाएँ छोड़ दे

परित्याग करे धन, भोग और सुख का

यज्ञ, दान, हवन, जप, तप सब

सोचे कि मेरे लिए ही कर रहा।


इन धर्मों का पालन करते जो

आत्मनिवेदन कर देते मेरे प्रति

उदय हो जाती उनके मन में

मेरी ये भक्ति प्रेम भरी।


और जिसे प्राप्त हो गयी

मेरी भक्ति, तो उसके लिए

और किसी दूसरी वस्तु का

प्राप्त होना शेष ना रह जाए।


इस प्रकार धर्म का पालन करे तो

सत्वगुण की वृद्धि होती चित में

शांत हो कर फिर चित ये

लग जाता है आत्मा में।


धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य

तब स्वयं ही प्राप्त हो जाते

परंतु चित में रजोगुण की बाढ़ आ जाती

जो चित लग जाए संसार में।


असत् वस्तु में लग जाता फिर

धर्म ज्ञान तब लुप्त हो जाते

अधर्म, अज्ञान और मोह का

घर बन जाता है तब चित ये।


जिससे मेरी भक्ति हो, वही धर्म है

और जिससे ब्रह्म और आत्मा की

एकता का साक्षात्कार होता

कहते हैं ज्ञान उसे ही।


विषयों से असंग, निर्लेप रहना वैराग्य

ऐश्वर्य हैं अणिमादि सिद्धियाँ ही

“ यम और नियम कितने प्रकार के “

तब ये प्रश्न करें उद्धव जी।


पूछें श्री कृष्ण, शम क्या है

दम क्या है, तितिक्षा, धैर्य क्या

दान, तपस्या, शूरता, सत्य और

ऋत का स्वरूप और त्याग  क्या।


अभीष्ट धन कौन सा है

और यज्ञ किसे कहते हैं

दक्षिणा क्या वस्तु है

सच्चा बल पुरुष का क्या है।


भग किस चीज़ को कहते

और लाभ वस्तु है क्या

उत्तम विद्या और श्री तथा

सुख, दुःख होते हैं ये क्या।


पंडित और मूर्ख के लक्षण क्या

लक्षण क्या सुमार्ग और कुमार्ग के

स्वर्ग और नर्क क्या है

भाई बंधु किसे मानना चाहिए।


धन क्या है, और ये बतलाइए

धनवान निर्धन किसे हैं कहते

कृपण कौन है और ईश्वर कौन

इन प्रश्नों का उत्तर दीजिए।


भगवान श्री कृष्ण ने कहा

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, असंगता, लज्जा

असंचय, आस्तिक़ता, ब्रह्मचर्य, मौन, स्थिरता

क्षमा और अभय, ये यम हैं बारह।


शोच, जप, तप, हवन

श्रद्धा, अतिथिसेवा, पूजा मेरी

तीर्थयात्रा, परोपकार की चेष्टा

संतोष और गुरुसेवा बारह नियम भी।


सकाम और निष्काम दोनो प्रकार के

साधनों के लिए उपयोगी यम, नियम ये

जो पुरुष पालन करते इनका

इच्छानुसार भोग, मोक्ष देते उन्हें।


बुद्धि का मुझमें लग जाना शम है

नाम दम, इंद्रियों के संयम का

और नाम तितिक्षा है

न्यास से प्राप्त दुःख को सहने का।


जिव्हा और जननिंद्रियों पर

विजय प्राप्त करना धैर्य है

किसी से द्रोह ना करना और

सबको अभय देना दान है।


कामनाओं का त्याग करना है तप

शूरता है विजय वासनाओं पर

और सत्य है सर्वज्ञ, समस्वरूप

सत्यस्वरूप परमात्मा का दर्शन।


सत्य और मधुर भाष्य को ही

महात्माओं ने ऋत है कहा

कर्मों में आसक्ति ना होना शोच है

सच्चा सन्यास, त्याग कामनाओं का।


धर्म ही मनुष्य का अभीष्ट धन है

यज्ञ हूँ मैं परमेश्वर ही

ज्ञान का उपदेश देना ही दक्षिणा

श्रेष्ठ व्रत है प्राणायाम ही।


मेरा ऐश्वर्य ही भग है

सच्चा लाभ मेरी श्रेष्ठ भक्ति

ब्रह्म और आत्मा का भेद मिट जाता

जिससे है सच्ची विद्या वही।


घृणा होने का पाप करना जो 

इसको ही लज्जा हैं कहते

शरीर का सच्चा सौंदर्य, श्री

निरपेक्षता आदि गुण ही हैं ये।


दुःख और सुख की भावना का

नष्ट हो जाना ही सुख है

विषयभोगों की कामना करना

ये ही सबसे बड़ा दुःख है।


बंधन और मोह का तत्व जो जानता

पंडित है बस एक वही

शरीर आदि में मैं पन जिसका

सबसे बड़ा मूर्ख है वही।


संसार की और से निवृत करके

मुझे प्राप्त करा दे, सुमार्ग वही

चित की बहिमूर्खता जो

होती है कुमार्ग वही।


सत्वगुण की बुद्धि ही संसर्ग और

नर्क है तमोगुण की बुद्धि

गुरु ही भाई बंधु सच्चा

और वह गुरु हूँ मैं ही।


यह मनुष्य शरीर सच्चा घर है

सच्चा धनी वही, गुणों से सम्पन्न जो

चित में असंतोष, अभाव का बोध जिसे 

बहुत बड़ा दरिद्र है वो तो।


जो जितेंद्रिय नही, वही कृपण है

समर्थ, स्वतंत्र और ईश्वर वह है

जिसकी चितवृति विषयों में

बिलकुल भी आसक्त नही है।


इसके विपरीत विषयों में आसक्त जो

असमर्थ है सर्वथा वही 

उद्धव, मोक्ष मार्ग के लिए सहायक

तुम्हारे इन प्रश्नों के उत्तर ही।


गुण दोषों पर दृष्टि जाना

सबसे बड़ा दोष है यही

अपने स्वरूप में स्थित रहे जो

सबसे बड़ा गुण है यही।


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