"सुनो और " कहो " का सफर
"सुनो और " कहो " का सफर
कभी वो कहता " सुनो" मैं सुनती
मैं भी कहती " कहो" वो कहता ।
ये कहने सुनने का खेल रोज चलता था।
वो प्यार से कहता मैं गौर से सुनती
उसे कहने में इंटरेस्ट था मुझे सुनने में।
वो हमेशा "सुनो" ही बोलता और मैं "कहो"।
इस कहने सुनने में समुन्दर के तरह प्यार था ,कभी न खत्म होने वाला।
कहते सुनते हम दोनो अनंत ऊंचाई तक पहुंच गए थे
तब तक कहानी में नया मोड़ आया ।
ऊंचाई से हम दोनो जमीन पर धराम से गिरे
और न जाने हड्डियों की तरह कितने अरमान टूटे।
ये कहने सुनने का खेल यही थम गया
"सुनो" कहने वाला चुप हो गाया और " कहो" कहने वाली " सुनो" के इंतजार में ....।