आत्म ज्ञान
आत्म ज्ञान
बहुत पुरानी बात है,एक राज्य का एक राजा था, वह बहुत प्रभावशाली, बुद्धि और वैभव से संपन्न था,वह बहुत न्यायप्रिय और सुलझे हुए थे। आस-पास के राजा भी समय-समय पर उससे अपने राज्य के लिए परामर्श लिया करते थे....।
एक दिन राजा अपनी शैय्या पर लेेटे-लेटे सोचने लगा, *" मैं कितना भाग्यशाली हूं.., कितना विशाल है मेरा परिवार, कितना समृद्ध है मेरा अंत:पुर, कितनी मजबूत है मेरी सेना, कितना बड़ा है मेरे राजकोष के सामने कुबेर के खजाने की क्या बिसात है ....?
मेरे निवास की शोभा को देखकर अप्सराएं भी ईर्ष्या करती होंगी, मेरा हर वचन आदेश होता है।
राजा कवि हृदय था और संस्कृृत का विद्वान था....
अपने भावों को उसने शब्दों में पिरोना शुरू किया, तीन चरण बन गए, चौथी लाइन पूरी नहीं हो रही थी. जब तक पूरा श्लोक नहीं बन जाता, तब तक कोई भी रचनाकार उसे बार-बार दोहराता है.राजा भी अपनी वे तीन लाइनें बार-बार गुनगुना रहा था।
चेतोहरा: युवतय: स्वजनाऽनुकूला: सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या: गर्जन्ति दन्तिनिवहास्विरलास्तुरंगा:_
( मेरी चित्ताकर्षक रानियां हैं, अनुकूल स्वजन वर्ग है, श्रेष्ठ कुटुंबी जन हैं... कर्मकार विनम्र और आज्ञापालक हैं, हाथी, घोड़ों के रूप में विशाल सेना है....)
लेकिन उसके बार-बार गुनगुनाने पर भी चौथा-चरण बन नहीं रहा था...
संयोग की बात है कि उसी रात एक चोर राजमहल में चोरी करने के लिए आया था। मौका पाकर वह राजा के शयनकक्ष में घुस गया और उसके ही पलंग के नीचे दुबक कर कर बैठ गया। चोर भी संस्कृत का ज्ञाता और आशु कवि था।
राजा द्वारा गुनगुनाए जाते श्लोक के तीन चरण चोर ने सुन लिए। राजा के दिमाग में चौथी लाइन नहीं बन रही है, लेकिन तीन लाइनें सुन कर उस चोर का कवि मन भी उसे पूरा करने के लिए मचलने लगा। वह भूल गया कि वह चोर है और राजा के कक्ष में चोरी करने घुसा है।
अगली बार राजा ने जैसे ही वे तीन लाइनें पूरी कीं, चोर के मुंह से चौथी लाइन निकल पड़ी*"सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति॥
(राज्य, वैभव आदि सब तभी तक है, जब तक आंख खुली है। आंख बंद होने के बाद कुछ नहीं है। अत : किस पर गर्व कर रहे हो....?)
चोर की इस एक पंक्ति ने राजा की आंखें खोल दीं, उसे सम्यक् दृष्टि मिल गई। उसका जवाब मिल गया था । उसे मुक्ति का द्वार दिख गया था।
वह चारों ओर विस्फारित नेत्रों से देखने लगा - ऐसी ज्ञान की बात किसने कही.... ? कैसे कही.... यहां उसके कक्ष में पलंग के नीचे कौन विद्वान आ गया और कैसे आया ?
राजा ने आवाज दी, *"पलंग के नीचे जो भी है, वह मेरे सामने उपस्थित हो।
चोर सामने आ कर खड़ा हुआ फिर हाथ जोड़ कर राजा से बोला *" हे राजन ! मैं आपके कक्ष में आया तो चोरी करने था, पर आप के द्वारा पढ़ा जा रहा श्लोक सुनकर यह भूल गया कि मैं चोर हूं। मेरा काव्य प्रेम उमड़ पड़ा और मैं चौथे चरण की पूर्ति करने का दुस्साहस कर बैठा।
हे राजन ! मैं आपका अपराधी हूं। मुझे क्षमा कर दें।
राजा ने उसे देखते हुए कहा *", तुम अपने जीवन में चाहे जो कुछ भी करते हो, इस क्षण तो तुम मेरे गुरु हो। तुमने मुझे जीवन के यथार्थ का परिचय कराया है। आंख बंद होने के बाद कुछ भी नहीं रहता - यह कह कर तुमने मेरा सत्य से साक्षात्कार करवा दिया... गुरु होने के कारण तुम मुझसे जो चाहो मांग सकते हो। आज मेरे ज्ञान की आंखें खुल गईं। इसलिए शुभस्य शीघ्रम् - इस सूक्त को आत्मसात करते हुए मैं शीघ्र ही संन्यास लेना चाहता हूं। राज्य अब तृण के समान प्रतीत हो रहा है
तुम यदि मेरा राज्य चाहो तो मैं उसे सहर्ष देने के लिए तैयार हूं।
यह सुन चोर बोला*" हे राजन ! आपको जैसे इस वाक्य से बोध पाठ मिला है, वैसे ही मेरा मन भी बदल गया है। मैं भी अब संन्यास स्वीकार करना चाहता हूं। इस जाग में अब कुछ नही रखा है।
बस क्या था राजा और चोर दोनों ही संन्यासी बन गए।
उस एक ही पंक्ति ने दोनों को एक साथ स्पंदित कर दिया। यह है सम्यक द्रष्टि का परिणाम। जब तक राजा की दृष्टि सम्यक् नहीं थी, वह धन - वैभव, भोग - विलास को ही सब कुछ समझ रहा था।
ज्यों ही आंखों से रंगीन चश्मा उतरा.... दृष्टि सम्यक् बनी कि पदार्थ पदार्थ हो गया और आत्मा-आत्मा..!! उनके मन से सभी अर्थ अनर्थ बाहर निकल चुके थे।