Shakuntla Agarwal

Abstract Others

4.5  

Shakuntla Agarwal

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"भुगतान"

"भुगतान"

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जिस मनुष्य को जितना सांसों का भुगतान करना है, वह उतना ही करके, जहां से रवानगी लेगा। यह सत्य है। हम कितना ही चाहें, परन्तु हम एक सांस भी नहीं ले सकते, उस मालिक के इशारे के बिना। हमारे पुण्यों की जितनी भारी गठरी है, वह हमें यहीं पर खाली करके जानी पड़ेगी। घड़ा पापों का भारी, उसे कैसे ढ़ोयेगा ? विधाता जो भी चाहेगा वहीं तो होयेगा। इसके मेरे पास कई ज्वलन्त उदाहरण हैं। मरने वाले भुगतते रहते हैं और जिनको यहां जीवन जीना है या यों कहिये जिनकी यहाँ जरूरत है, वह कूच कर जाते हैं और हम हाथ मलते रह जाते हैं। 

कान्ता फूटफूट कर रो रही थी। वह अपनी बड़ी बेटी दिव्या की अर्थी के पास बैठी बार - बार यही दोहरा रही थी, मेरी बारी थी तू कैसे चली गई? कभी अपनी छाती को कूट रही थी, तो कभी दिव्या पर निढाल होकर गिर रही थी, सब उसे सांत्वना देने में लगे थे, परन्तु उसका रो-रोकर बुरा हाल था। दिव्या को स्वाइन फ्लू हो गया था और 15-20 दिन की जिन्दगी और मौत की जंग में, मौत ने बाजी मार ली। उन्होंने दिव्या को बचाने के लिये क्या कुछ नहीं करवाया, डाक्टरों के परामर्श और इलाज के साथ-साथ धार्मिक अनुष्ठानों का भी सहारा लिया, परन्तु कुछ हासिल नहीं हुआ। कान्ता दिव्या को छोड़ने के लिये तैयार ही नहीं थी। वह बार -बार यही दोहरा रही थी, मुझे भी इसके साथ ही लें चलो, मैं अब यहाँ जी कर क्या करूंगी? कान्ता का रुदन देखकर सबका कलेजा मुंह को आ रहा था। कान्ता को कैसे भी सब्र नहीं हो रहा था। उसका वर्षों का बांध अब सैलाब बनकर बह रहा था, मनुष्य कितना भी चाहे जाने वाले को कौन रोक सकता है? 

आखिरकार दिव्या को भी चिता को समर्पित कर दिया, लेकिन कान्ता बेसुध हो गई थी। उसे कमरे में लिटा दिया गया, इंजेक्शन देकर, जैसे ही कान्ता की तन्द्रा टूटी, उसे पिछली यादों ने घेर लिया कि वह अपने मायके रोहतक गई हुई थी, उसके भतीजे के बेटे की शादी थी, घर में गहमागहमी का माहौल था, बड़ा परिवार होने के कारण 10-15 दिन रिश्तेदारों और फंक्शन में कैसे बीते, उसे पता ही नहीं चला, वह खुशी से सराबोर हो रही थी, चारों तरफ से काऩों में रस घोलती बुआ जी की आवाज़ों ने उसे क्षितिज पर बिठा दिया, वह यह भी भूल गई की उसे वापिस सतना भी जाना है। आज कान्ता के सतना रवाना होने का वक्त आ गया था, वह भारी मन से सतना के लिए रवाना हुई। दूसरे भतीजे का बेटा विशु उन्हें छोड़ने दिल्ली जा रहा था। 

विशु, ड्राईवर और कान्ता कार से दिल्ली के लिये रवाना हुये। रोहद गांव के पास ड्राईवर को लगा, कार में पेट्रोल खत्म होने वाला है। उन्होंने सोचा हम रोहद में पेट्रोल डलवा लेंगें, परन्तु होनी को कुछ और ही मंजूर था। पेट्रोल डलवाने से पहले ही, 790 के टम्पू के साथ आमने सामने की जबरदस्त टक़्कर हो गई। टक्कर बहुत भीषण थी, कान्ता तो बेहोश हो गई, विशु मोबाइल पर गेम खेल रहा था, उसे होश था, ड्राईवर की स्थिति भी खराब थी। लेकिन मारने वाले से बचाने वाला महान होता है, इतने में एक जीप आकर वहाँ रुकी जो सवारियों से भरी थी, लोगों ने उन्हें कार से बाहर निकाला। तब तक कार के पिछले हिस्से में आग़ लग चुकी थी और ड्राइवर अभी कार में ही था, उसकी खिड़की नहीं खुल रही थी। ये लोग ड्राइवर को कार से बाहर नहीं निकालना चाह रहे थे, अपनी जान सबको प्यारी होती है। विशु ने सबको आश्वाशन दिया की यह आग और नही भभकेगी क्योंकि कार में पेट्रोल नहीं हैं जैसे-तैसे वो लोग ड्राईवर को बाहर निकालने के लिये राजी हुये। उन्होंने खिडक़ी का कांच तोड़कर ड्राईवर को बाहर निकाला। 

कान्ता बेहोश थी, अब उसे थोड़ा-थोड़ा होश आना शुरु हुआ, वह दर्द से करहा रही थी, क्योंकि उसके घुटने की और हाथ की हड्डी टूट चुकी थी, और भी बहुत सी चोटें आई थी। भला हो उस ड्राईवर का, जो उसने उन तीनों को जीप में लिटाकर ,रोहतक मेडिकल कालेज में पहुंचा दिया। वहीं भीड़ में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं, जो माल बटोरने के लिए ही आते हैं। कान्ता का पर्स किसी ने मार लिया था, जिसमें सोने की चेन, अंगूठिया और 20-25 हजार रूपये थे, कार बुरी तरह आग की भेंट चढ़ चुकी थी, कान्ता का सामान भी उसमें आग की भेट चढ़ गया। विशु ने घरवालों को किसी का फोन लेकर फोन किया और बताया की उनका अक्सीडेन्ट हो गया है और वह मेडिकल कालेज में है। डाक्टर साहिब बाहर गये थे, इसलिये कान्ता का आपरेशन नहीं हो सकता था। 2-3 दिन बाद जब डाक्टर साहिब आये, तो कान्ता के आपरेशऩ हुये। ड्राईवर की इस हादसे में मौत हो गयी थी, कान्ता की अटैची आग की भेंट चढ़ चुकी थी, परन्तु जो जेवर थे, उन्होंने डली का आकार ले लिया था, सो उसके भतीजे वहां गये और गनीमत उनके हाथ वह डली लग गयी। परन्तु सबको लग रहा था पैसा तो हाथ का मैल है, शुक्र है जान तो बची। सांस है तो पैसा तो और कमा लेंगें। 

वह चल-फिर नहीं सकती थी, सो वह रोहतक ही रही, कान्ता के भाई -भतीजों और भाभियों ने मन से सेवा की। कान्ता 2-3 महीने बाद चलने -फिरने की हालत में आ गई, उसे रमेश की भी फ़िक्र थी क्योंकि रमेश सतना में अकेला था और उसे अस्थमा के साथ बहुत सी और बिमारियाँ भी थी। सो वह जैसे ही जाने लायक हुई, वह सतना के लिये रवाना हो गई, वहाँ पर रमेश का खुद का आफिस था, वहाँ 7-8 लड़के काम करते थे और रमेश बिड़ला से भी जुड़ा हुआ था, सो दोनों को कोई तकलीफ नहीं हुई, न ही किसी बात की कोई दिक्कत, रमेश कान्ता का बहुत ख्याल रखता था, उससे जितना बन पड़ता, वह कान्ता की सेवा करता और कान्ता की जरूरतों का ख्याल रखता। जिन्दगी दौड़ नहीं रही थी, हाँ खिसक जरूर रही थी।

रमेश ने कान्ता के सिराहने स्टूल पर पानी का लोटा रखा, उसका बिस्तर सही किया, कान्ता को दवाई दी - और कुछ चाहिये तुम्हें ? नहीं बस, मुझे और कुछ नहीं चाहिये। बस अब आप लेट जाओ, आप भी थक गये होंगे - कान्ता ने फरमाया। मुझे इतनी बुरी आदतों की आदत मत डालो - रमेश मुस्कुरा दिया। रमेश अपने बिस्तर पर लेट गया और जैसे ही आक्सीजन मास्क लगाया तो वह लम्बी-लम्बी सांसे लेने लगा, जैसे उसे सांस ही नहीं आ रही हो। वह बुरी तरह हाफ रहा था, उसकी सांस उखड़ती जा रही थी। कान्ता को अब कुछ-कुछ समझ आ रहा था, वह रमेश को बोल रही थी पर वह जबाव नहीं दे पा रहा था, कान्ता जैसे-तैसे सीढ़ियों से नीचे उतरी। वह गली डॉक्टरों की गली थी, कान्ता ने जैसे ही आवाज लगाई, वैसे ही बहुत से लोग जमा हो गये, उनमें 4-5 डाक्टर थे, वो लोग पहुंचे, कान्ता नीचे सीढ़ियों पर ही बैठ गई, वह चल नहीं पा रही थी। 

पास वाले लड़के ने पकड़ कर कान्ता को ऊपर पहुंचाया। वह जब तक ऊपर पहुंची, डाक्टरों ने जबाव दे दिया था। रमेश की सांस बन्द हो चुकी थी, कान्ता को कुछ समझ नहीं आ रहा था - जो आदमी अभी थोड़ी देर पहले मुस्कुरा रहा था, वह अब इस दुनिया से अलविदा ले चुका था, उसका रो-रोकर बुरा हाल था, वह बार- बार यही दोहरा रही थी।

मैं अक्सीडेन्ट में मर क्यों नही गई? क्या भगवान ने मुझे ये दिन दिखाने के लिये और यूँ भुगतने के लिये बचाया। काश! मैं तब मर जाती तो मुझे ये मनहूस दिन नहीं देखना पड़ता, उसऩे जैसे -तैसे अपने आप को सम्भाला और अपने रिश्तेदारों को सूचना दी, क्योंकि ये सब काम वही कर सकती थी, क्योंकि वहाँ वो दोनों अकेले थे। कान्ता का रो- रो कर बुरा हाल था, एक तो हाथ पैरों से लाचार और ऊपर से ये दुःख़ों का पहाड़। यह आधुनिक युग की विडम्बना ही है, की हर घर में दो ही नजर आते हैं, एक चला जाता है तो दूसरा अधूरा। 

हम भौतिकता की दौड़ में इतना दौड़ रहे हैं, जाने कहां जाकर रुकेंगे, पता नहीं। कान्ता इतनी परिपक्व थी, उसने अपने-आप को संभाल लिया, वह यह समझ रही थी कि हम रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं और हमारी डोर किसी और के हाथ में हैं | हमें अपनी सांसों का भुगतान करके ही जाना पड़ेगा और वह यह भी समझ गई की जितने दुःख हमारे भाग्य में लिखें हैं, "शकुऩ" हमें उन्हें भी यहीं भोग कर जाना होगा।



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