जीवा माशे...
जीवा माशे...
सबसे पहले तो स्टोरी मिरर को इस अतुलनीय प्रयास के लिए साधुवाद। इस तरह से हमे बहुत सारे ऐसे लोगो के बारे में जानने को मिलेगा जिन्होंने समाज को एक नई दिशा दी।
इसी कड़ी में मैं आज आपका परिचय हमारे दहानू , जिला पालघर, महाराष्ट्र के श्री जीवा माशे से करवाती हूँ।
दहानू विश्व प्रसिद्ध वारली चित्रकला के लिए प्रसिद्ध है। वारली एक प्रकार की जनजाति है। जो महाराष्ट्र् राज्य के थाने जिले के दहानु, तलासरी एवं ज्वाहर तालुका में मुख्यत: दूसरी जनजातियों के साथ पायी जाती है। ये बहुत मेहनती और कृषि प्रधान लोग होते है। जो बास, लकडी, घास एवं मिट्टी से बनी झोपडियों में रहतें है। झोपडियों की दीवारे लाल काडू मिट्टि एवं बांस से बांध कर बनाई जाती है, दीवारो को पहले लाल मिट्टी से लीपा जाता है उसके बाद ऊपर से गाय के गोबर से लिपाई की जाती है। वारली चित्रकला एक प्राचीन भारतीय कला है जो की महाराष्ट्र की एक जनजाति वारली द्वारा बनाई जाती है। यह कला उनके जीवन के मूल सिद्धांतो को प्रस्तुत करती है। इन चित्रों में मुख्यतः फसल पैदावार ऋतु, शादी, उत्सव, जन्म और धार्मिकता को दर्शाया जाता है। यह कला वारली जनजाति के सरल जीवन को भी दर्शाती है। वारली कलाओं के प्रमुख विषयों में शादी का बड़ा स्थान हैं। शादी के चित्रों में देव, पलघाट, पक्षी, पेड़, पुरुष और महिलायें साथ में नाचते हुए दर्शाए जाते है। प्रारम्भ में यह चित्रकला घर की महिलाओं द्वारा घर की दीवारों पर शुभ कामो में की जाती थी।
पर यहाँ पर हम बात कर रहे हैं श्री जीवा माशे की, कि किस तरह उन्होंने इस चित्रकला को घर की परिधि से बाहर निकाल कर विस्तृत आकाश दिया।
सात साल की उम्र में अपनी माँ की असामयिक मृत्यु के कारण, माशे कुछ समय तक नहीं बोल ही नही पाते थे । बात करने के लिए, वह धूल पर चित्र बनाते थे, जो समुदाय से बात करने में उनकी सहायता करते थे। आश्चर्यजनक रूप से, इसने उन्हें अपनी प्रारंभिक स्थानीय पहचान प्रदान की। हालांकि वारली चित्रकला अभी भी पूरी तरह से महिलाओं द्वारा ही की जाती थी। पर बालक जीवा ने इस कला का अभ्यास किया । उन्होंने इस बात के लिए अवहेलना भी सही कि यह पारंपरिक रूप से महिलाओं का क्षेत्र है। उन्होंने निरंतर अभ्यास करना जारी रखा। धीरे धीरे उन्हें दहानू और आस पास के इलाकों में पहचान मिलने लगी। दहानू घूमने आने वाले ईरानी एवं अन्य समुदाय के परिचितों द्वारा उनकी कला की प्रसिद्धि दहानू के बाहर भी फूल की खुशबू की तरह बिखरने लगी।
भारत की तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा सराहना के बाद, जीव्या सोमा माशे को धीरे-धीरे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शनी के निमंत्रण मिलने लगे । 1975 में, उनकी पहली एकल प्रदर्शनी, भारत के एक कलाकार, भास्कर कुलकर्णी के मार्गदर्शन में , मुंबई में केमोल्ड आर्ट गैलरी में आयोजित की गई थी । अगले वर्ष में, उनका पहला अंतर्राष्ट्रीय कायर्क्रम पैलेस डी कार्नोलेस , मेंटन, फ्रांस में आयोजित किया गया था। जीव्या सोमा माशे ने 1976 में जनजातीय कला के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार की प्राप्त किया।
प्रसिद्धि प्राप्त करने पर, जीव सोमा माशे ने कई अंतरराष्ट्रीय फोटोग्राफरों और कलाकारों को आकर्षित किया। वे उनके ग्रामीण घर पहुँचते, जहाँ वे नम्रतापूर्वक उनका अभिवादन करते और उनकी सेवा करते। उनमें से एक अमेरिकी कलाकार रिचर्ड लॉन्ग और फ्रांसीसी कला समीक्षक, कलेक्टर और क्यूरेटर हर्वे पेर्डियोल थे। वे उल्लेखनीय सहयोगी थे। उन्होंने उनके निवास पर लंबा समय बिताया, स्थानीय समुदाय से मुलाकात की और भारत की लोक संस्कृति से खुद को परिचित कराया। वहीं, रिचर्ड लॉन्ग ने स्थानीय पुरुषों की भागीदारी के साथ बड़े पैमाने पर भूमि कला का अभ्यास किया। 2003 में, जर्मनी के डसेलडोर्फ में संग्रहालय कुन्स्ट पलास्ट में, रिचर्ड लॉन्ग और जिव्या सोमा माशे की एक संयुक्त प्रदर्शनी थी
जीवा और उनके पुत्र बालू माशे दोनों ने वारली चित्रकला को घर आँगन की परिधि से निकालकर एक नई पहचान दी और एक ऊँचाई पर ले गए । जिव्या भाई ने पारम्परिक रूप से कपड़े पर गेरु लगाकर चावल को पीसकर उसके लेप से कला के दृष्टिकोण से चित्रकारी करनी प्रारंभ की। जिव्या भाई इस चित्रकारी के लिए किसी ब्रश का इस्तेमाल नहीं करते थे। वह हाथ की उंगलियों या लकड़ी से ही कलाकारी करते थे। अन्य चित्रकलाओं की तरह यह राजा रानी से संबंधित नहीं है। इसमें रोजमर्रा की जनमानस की जिंदगी को दर्शाया गया है। जैसे काम करती हुई आदिवासी महिलाएं, उनके पास ही पालने में खेलते बच्चे, खेत, खेत जोतते हुए पुरुष, फसल, घोड़ा, कुत्ता, सूरज, पंक्षी और विशेषत: तारपा नृत्य करते लोगों का समूह । हम कह सकते हैं कि वारली चित्रकला आम जनमानस की कला हैं। इसकी सादगी ही इस चित्रकला की विशेषता है । और इस सादगी को आकाश की ऊंचाईयों तक पहुंचाना जीवा का जीवट ।
आज उनके ही प्रयासों के कारण यह जनजाति एक अच्छी और सभ्य सुसंस्कृत आधुनिक ज़िन्दगी जी रही है। आज दहानु के घोलवड़ ग्राम में बड़े पैमाने पर वारली चित्रकला सिखाई भी जाती है । देश विदेश से बच्चे / लोग आ कर के इन्हीं वारली आदिवासियों के साथ रहते हैं । उनके रीति रिवाज रहन-सहन सब के साथ-साथ उनकी कलाकारी भी सीखते हैं। अब तो वारली पेंटिंग कपड़ों पर, कागज पर, दीवारों पर रंगों और ब्रश के द्वारा भी की जाती है। पूरे आदिवासी समुदाय, पूरे गांव को इस वारली चित्रकला के कारण एक अच्छा रोजगार और उन्नति का अवसर मिला है। शायद इस कला के बगैर इस समुदाय का उत्थान संभव नही था। यह बात इसलिए भी अच्छे से समझ आती है कि यहाँ अन्य जनजातियाँ भी है पर वो आज भी पिछड़ी अवस्था मे है। समाज के साथ लाने के लिए उनके लिए बहुत सी योजनाएं चलाई जा रही है। पर शायद उनमे कोई जीवा माशे नही है जो अपनी कला द्वारा पूरे समुदाय का उत्थान कर सके।
श्री जीवा माशे को देश विदेश में बहुत सारे सम्मान प्राप्त हुए हैं। उनको सम्मानीय राष्ट्रपति महोदया प्रतिभा पाटिल जी के द्वारा पद्मश्री का सम्मान भी प्राप्त हुआ है। सिर्फ इतना ही नहीं वह श्री जवाहरलाल नेहरू से लेकर अब्दुल कलाम जी तक के द्वारा सम्मानित किये गये है । इसके अलावा, उन्हें क्रमशः 2002 और 2009 में शिल्पी गुरु के साथ-साथ प्रिंस क्लॉस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। प्रतिष्ठित भारत सरकार पुरस्कारों में से एक, उन्हें वारली की आदिवासी कला में योगदान के लिए पद्म श्री मिला। विशेष रूप से, द वारलिस: ट्राइबल पेंटिंग्स एंड लीजेंड्स बाय केमोल्ड पब्लिकेशन्स, और द पेंटेड वर्ल्ड ऑफ द वारलिस , यशोधरा डालमिया द्वारा, दो किताबें हैं जो उनके जीवन और कार्य को दर्शाती हैं
माशे के जीवन और कार्यों का समन्वय सादगी और भव्यता, सद्भाव और जीवंतता, आदिमवाद से आधुनिकता तक किया जाता है। एक गहरे लाल रंग की सतह पर एकीकृत स्थान जैव विविध जीवन की एक आदिम प्रवृत्ति को लगभग उद्घाटित करता है। जैसे-जैसे हम उनकी खींची हुई आकृति और वस्तुओं में गहराई से उतरते हैं, एक ध्यानपूर्ण रुख हमारे अस्तित्व को परिवर्तन के प्रत्येक क्षण को प्रेरित करता है। अंत तक काम करते हुए, जीवा सोमा माशे का निधन 14 मई, 2004 को महाराष्ट्र के दहानू में उनके आवास पर हुआ।
मुझे बहुत खुशी होती है यह सोच कर कि मुझे भी दहानू में रहने और जीवा जी से मिलने का सौभाग्य मिला। मैंने इतने बड़े व्यक्तित्व को एकदम सरलतम रूप में चित्रकारी करते हुए देखा। मैं शिक्षा का विरोध नही कर रही पर पता नही क्यो ये लगता है किसी भी जनजाति समुदाय के विकास के लिए बाहरी नही आंतरिक गुणों की प्रगति की आवश्यकता है। शिक्षा से अधिक उनके कौशल को निखारने से शायद ज्यादा प्रगति संभव है।