सुबह का भूला
सुबह का भूला
क्यों आँखें मूंद कर चल रहे हैं हम-
क्यों सुनी अनसुनी कर के
ख़ुद को हरा रहे हैं हम!
क्यों देखी अनदेखी कर के
ख़ुद से भी नज़र चुरा रहे हैं हम!
है माहिर यह दुनिया,बदलती रंग
गिरगिट की तरह हर घड़ी -
पल पल बदलती अंदाज़-
है दुश्मन हमारी सबसे बड़ी
उसकी यह फ़ितरत,उसके रंग ढंग!
मानकर हम उसे गुरु कर रहे छल
ख़ुद से, ख़ुदा से ,सृष्टि से-
अक्ल के दुश्मन हम,
कर बैठें बैर अपनों से
सीख रहे हैं नए-नए करतब हर पल!
दूसरों की चलती चक्की में
रोड़ा अटकाना सीखा
गड़े मुर्दे उखाड़ उखाड़
सबके रिसते ज़ख़्मों पर
नमक छिड़कना सीखा
प्रेम प्यार का तिरस्कार सीखा
ओहदे का सत्कार सीखा
मेहनत को दी तिलांजलि-
अपना उल्लू,चिकनी चुपड़ी
बातों से ही सीधा करना सीखा!
जानते हैं दलदल में धंसते जा रहे पैर
पट्टी तो बंधी ही है आंखों पर-
फिर भी ,अनुशासन का
नामो निशान नहीं ख़ुद पर-
निरंकुश,संसार सागर में हम रहे हैं तैर !
खुल जाएं आंखें मेरी-
चाहूं बीती ताहि बिसारि दूं
आगे की अब सुध लूं
सुबह का भूला सांझ को घर आया
रहने दे मुझ पर ऐ ख़ुदा अपना साया!