औलाद
औलाद
औलाद वो जिसे देख माता पिता के
दिल में चैन और सुकून का हो अहसास
जिससे मन की बात कहने के लिए
दस बार सोचना, सकुचाना न पड़े
जिस रिश्ते की नींव हो पक्की
जिसमें आदर, सम्मान,सभ्य आचरण
और संवेदनशीलता की कीमत लगानी
हो नामुमकिन ।
जिसे बार बार यह बताने की जरूरत न हो
कि किन किन हालातों से गुज़र कर
दिन रात कर के एक, किया उसे बड़ा
उसकी खुशियां उसके रंजो ग़म,
उसकी मनमानी, उसके सपने
बनाए सदा उन्होंने अपने ।
यह किस्सा उन मां बाप का नहीं
जिन्होंने थोपी अपनी मर्ज़ी
अपनी औलाद पर,जिन्हें माना उन्होंने
अपना प्रतिरूप, अपनी अमानत
जिस पर लिखा हुआ है उनका हक़
उनका ही नाम ।
जिन से करें अपेक्षा असीम
और करें इज़हार उन्हीं अपेक्षाओं
और आशाओं का - बना लेते हैं जो
ख़ुद को छोटा उनकी नज़र में कह जाते हैं कितना कुछ
पर है यह कहानी उन की जो
खुद को रख कर एक तरफ़
अपनी औलाद पर लुटा देते हैं
अपनेपन का, स्नेह और प्रेरणा का
अपनी हर पाई पाई का भंडार
बिना झिझक के ।
बदले में कुछ मांगने की फ़ितरत नहीं
न किसी अपेक्षा का इज़हार
जिन्होंने रखा ख़ुद पर ही भरोसा अपना
और जीवन की उस सच्चाई पर
जो देना जाने,जो हिसाब-किताब
करना न जाने ।
वृद्धावस्था में जब हो जाते हैं
हम ख़ुद से जुदा
जब छूट जाता अपनों से नाता
जब मन का साथ न दे शरीर
तब औलाद न दे गर साथ
तो देगा फिर कौन?
ख़ुद को औरों के हवाले करना
है जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना
अपनों के होते औरों की ओर तकना
है जीवन की सबसे कठिन परीक्षा ।
परीक्षा पर परीक्षा,जब मोड़ लेती है
औलाद अपना मुँह, चुरा लेती है आंखें
उदासीनता प्रियजनों की,
तिल तिल देती है मार
पल पल लगने लगता है भारी इतना
कि एक लम्बी रात का,
एक कभी ना खत्म होने वाली नींद का
बस रहता है अब इंतजार ही इन्तज़ार ।
कहां वह चैन, कहां वह सुकून जिस की थी आस?
कहां वह मजबूत सहारे, कहां वह औलाद?