दक्ष यज्ञ
दक्ष यज्ञ
है सीख यह जग को ,
था बहुत बड़ा आयोजन ,
पर आरंभ से नियत में था खोट।
जब भी करो तुम कोई आयोजन ,
रखो मन जल सा निर्मल ।
आचार विचार और मन हो जल सा पारदर्शी ।
ना की हो दर्पण सा,
कि दिखे खुद की ही छवि।
किसी शुभ अवसर के उपलक्ष्य में मत करो अपमान किसी का,
क्योंकि होगा नुकसान निज तुम्हारा ही किसी ना किसी रूप में।
नियति से कौन बच पाया है ,
नियति के खेल निराले,
त्रिलोकीनाथ भी बच ना पाए नियति के खेल से।
कतिपय जगत को सीख देनी थी,
तभी सती आई पिता के द्वार बिन बुलाए।
है जरूरी निभाने कुछ लोकाचार ,
है जरूरी पल्लवित करने अपने संस्कार।
बड़े बुजुर्गों की बात धैर्य से सुन लो ,
नहीं तो बाद में सिर्फ पछतावा ही हाथ आए हैं।