रंग!
रंग!
रंग भर के इन चहेरो पे, खुदा खुद पछताया..
तू काला में गोरा, और ये इंसान बट गया !
अब भांप के पानी, पानी जो रंगहीन बनाया
पानी भी यहां,झम झम और गंगाजल हो गया !
पासा फिर पलटा, हर पानी में हर रंग घोल दिया
अब की होली , राजा - रंक हर एक को लगाया !
मन भीतर कालिख हटाई,सतरंग सजाई हर काया
बेरंगों में, एक रंग इंसानियत का भी उसने लगाया !