अपने अपने दायरे
अपने अपने दायरे
शोभा को नौकरी ज्वाइन किये हुए आज एक बरस पूरे हो गए। वह इस बात की ख़ुशी मनाये या दुःख? उसको क्या शौक है कि वो सारा-सारा दिन गैर मर्दों के बीच उठे बैठे? परन्तु अगर वो काम न करे तो आगे की जिंदगी कैसे कटे? तीन बरस हो गए उसकी शादी को, लेकिन तरुण आज तक सिर्फ हवाई किले बनाता रहा. हवाई किलों से घर का खर्च चलता है भला? वो तो अच्छा हुआ कि उसने अपनी पढ़ाई के दौरान ही पापा से ज़िद करके कंप्यूटर का कोर्स कर लिया था जिसकी वजह से आज वह डाटा एंट्री ऑपरेटर का काम कर रही है. पैसे भले बहुत कम मिलते हैं लेकिन मिलते तो हैं. तरुण की तरह ख्वाबों की दुनिया में विचरने से तो अच्छा ही है ना.
इन्हीं सब ख्यालों में खोयी हुई शोभा कब अपने घर जाने वाली गली में दाखिल हो गयी उसे पता ही नहीं चला. उसने घडी देखी। आठ बजने ही वाले थे. आज फिर उसे सात बजे तक ऑफिस में काम की वजह से रुकना पड़ा था.जब भी ऑफिस में काम या मीटिंग की वजह से देर होने की सम्भावना रहती उसकी घिग्घी बांध जाती थी. बॉस को वो मना कैसे करे? और तरुण के ताने कैसे झेले? वह उसके घर आते ही फट पड़ता था। वह बरसता रहता था और शोभा चुपचाप अपना काम करती रहती थी.वह जानती थी कि आज भी उसे काफी कुछ सुनना पड़ेगा।
धड़कते हुए दिल से उसने दरवाजा खटखटाया। तरुण शायद टीवी देख रहा था. न्यूज़ की आवाजें बाहर तक गूंज रही थी। तरुण ने दरवाजा खोला और चुपचाप वपिस बैठकर टीवी देखने में व्यस्त हो गया। शोभा जानती थी कि वह सिर्फ टीवी देखने का अभिनय कर रहा है। अंदर से वह शोभा को खरी-खोटी सुनने के लिए बेताब है....... किसी बात से शुरुआत होनी है बस.
शोभा चुपचाप दूसरे कमरे में चली गयी, कपडे बदले और वपिस आयी तो तरुण चुपचाप आँखें टीवी पर गड़ाए हुए था.
"चाय बनाऊं" -- उसने डरते-डरते तरुण से पूछा।
"क्यूँ ? आज आज ऑफिस में दोस्तों के साथ चाय नास्ता नहीं हुई क्या?" -- तरुण टीवी पे आँखे गड़ाए हुए ही बोला।
"हद हो गयी तरुण, मैं तो तुम्हारे लिए पूछ रही हूँ, तुम्हे क्या पता नहीं है की मैं चाय नहीं पीती"
"हाँ, तुम कॉफी पिया करो अपने दोस्तों के साथ, चाय तो हम जैसे निठल्ले पीते हैं " -- तरुण अब उसे शब्दों के वाण से बींधने को पूरी तरह तैयार हो चूका था।
"मैं वहां काम करने जाती हूँ तरुण, कितनी बार कहूं ? कोई पार्टी करने थोड़ी जाती हूँ "?
" तुम वहां स्टाफ के साथ पार्टी नहीं करती हो क्या?? बता दो.....बता दो कि नहीं करती? ---- तरुण अचानक सोफे से उछलकर उसके सामने खड़ा हो कर जोरों से चीख पड़ा.. उसके पाजामे की डोरी लटक कर फर्श को छूने-छूने को हो रही थी, बनियाइन को उसने पेट के ऊपर चढ़ा रखा था, दाढ़ी बढ़ी हुई थी,चेहरा निस्तेज और आँखों में गुस्सा होने के बावजूद दीनता टपक रही थी. तरुण के सारे वजूद से उसे जोरों की घिन आयी। उसने अपना मुँह फेर लिया और वापिस किचन जाने के लिए मुड़ गयी. यह रोज का नियम था, वह जानती थी कि लड़ाई अभी ख़त्म नहीं होने वाली। तरुण जबतक अपने दिल के सारे गुबार निकाल नहीं लेगा तबतक शांत नहीं होगा। वह सारे दिन के काम से इतनी थकी हुई थी कि किसी तरह दो पल शांति से बैठना चाहती थी. किचन में यहाँ-वहां जूठे बर्तन बिखरे पड़े थे. शोभा चुपचाप उन बर्तनों को समेट कर सिंक में रखने लगी. लेकिन उसे अपने पीछे तरुण की उपस्थिति महसूस हो रही थी.
"आज की देरी का क्या बहाना है तुम्हारे पास?"----तरुण किचेन में आकर एक तिपाई पर बैठ चुका था.
"मीटिंग थी" -- शोभा बिना उसकी ओर देखे बोली और बर्तन धोती रही.
"अच्छा। मैं भी तो जानू कि रोज-रोज देर शाम तक की मीटिंग में कौन सी बातों की चर्चा होती है?" साफ़-साफ़ ये क्यों नहीं कहती की तुम्हें गैर मर्दों के साथ बतियाने में, हसी-ठिठोली करने में अच्छा लगता है, वो सब परायी औरतों पे डोरे डालते रहते हैं और उसके सामने चिकनी-चुपड़ी बातें करते रहते हैं. भले घर की औरतें अपने दायरे में रहती हैं, और अपने काम से काम रखती हैं। लेकिन जब अपना सिक्का ही खोटा निकल जाय तो कोई किसी को क्या कहे?"
"तुम्हारा दायरा क्या है तरुण?" -- अब शोभा के भी अंदर घबराहट की जगह गुस्सा और चिढ भरती जा रही थी. " शादी के बाद से आजतक कभी तुमने जिम्मेदारियों को समझने की कोशिश भी नहीं की, अपनी डिग्रीयों की माला बना कर जपते रहे.....कि कोई चमत्कार होगा और तुम्हें उठाकर किसी कम्पनी का सीईओ बना दिया जायेगा। जब तुम्हारे सपनो से घर का राशन नहीं चला तब जाकर मुझे ये नौकरी करनी पड़ी और यह मत भूलना कि जिस नौकरी को तुम दिन-रात गाली देते हो उसी की खाते भी हो". --- कहते कहते शोभा की आँख आंसुओं से भीग गयी। उसने मुड़कर तरुण की ओर देखा। वह चुपचाप बैठा हुआ था,
"चाय बना दूँ?" -- शोभा अपने आँचल से आंसू पोछते हुए बोली।
" तुम्हारा दायरा घर की चारदीवारी है शोभा, और मेरा दायरा बाहर की दुनिया। हम दोनों ही गलत दायरे में जी रहे हैं । यही हमारी लड़ाई की वजह है". -- तरुण नज़रें झुकाये बोल रहा था।
"और इस दायरे की पैमाइश तुम और तुम्हारे जैसे मर्दों ने अपनी मर्ज़ी से कर ली, इसमें हम औरतों की कोई भूमिका नहीं। सच तो ये है कि हमारी कोई दुनिया है ही नहीं तरुण, हमारी हदें तुम मर्दों के खयालात से बनती बिगड़ती रहती है.सभी मर्द को आज़ाद औरतें चाहिए ...... बस शर्त इतनी कि वो अपने घर की नहीं हो".
" बाहर जाकर सिर्फ जुबान लड़ाना सीखी हो, और कुछ नहीं। मुझे तुमसे कोई बहस नहीं करनी। अगर तुम सच में मुझ से प्रेम करती हो तो अपना इस्तीफा दे दो. समझ लो यही तुम्हारी अग्निपरीक्षा है".-- तरुण ने निर्णायक स्वर में कहा.
" अगर तुम्हारी यही मर्ज़ी है तो कान खोलकर सुन लो, मुझे कोई अग्निपरीक्षा नहीं देनी, और अगर तुमसे प्रेम करने की शर्त तुम्हारी गुलामी है, तो सुन लो .........मुझे तुमसे कोई प्रेम नहीं।
मैं इस्तीफा नहीं दूंगी।
शोभा अपनी चाय लेकर बालकनी में आ गयी. दूर से आती ठंडी हवाओं के झोंके उसके लम्बे बालों को उडाये चले जा रहे थे। उन हवाओं की की कोई हद नहीं थी.