sukesh mishra

Tragedy

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sukesh mishra

Tragedy

स्पीड लिमिट

स्पीड लिमिट

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शहरों में अब आपाधापी और शोर-शराबा हद से ज्यादा हो गया है। हर तरफ सड़कों पर गाड़ियों की भरमार। सभी अपने-अपने मंजिलों की ओर पहुंचने को व्याकुल। 

सहाय साहब से अब शहरों में चौड़ी सडकों को पार करना मुश्किल होता जा रहा है, जवानी के दिनों में वो भी खूब दौड़-भाग किया करते थे और इसमें उनका मन भी लगता था। आज वही सहाय साहब दिल्ली की व्यस्ततम सड़क के किनारे तूफानी रफ़्तार से आती हुई गाड़ियों को असहाय भाव से देख रहे हैं. जिस खम्भे का सहारा लेकर वह खड़े हैं उस पर टंगे हुए बोर्ड पर लिखा हुआ है........स्पीड लिमिट 40 km . सहाय बाबू के 80 बरस के झुर्रियों भरे चेहरे पर उस बोर्ड को निहारते हुए बहुत सारे भाव आ-जा रहे हैं ........ गाड़ियों के लिए यह लिख भर देने से उनकी रफ़्तार नियंत्रित हो जाती है क्या? और ज़िंदगी की?.जिंदगी की रफ़्तार का क्या? 

मणिकांत सहाय गांव की पैदाइश थे जहाँ की ज़िंदगी की रफ़्तार लिमिट से बहुत ही कम रहती है, सब कुछ ठहरा-ठहरा सा रहता है और यह बात उन्हें कभी पसंद नहीं आयी. पिता का खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत, माँ का घर के अंदर सुबह से देर रात तक गृहस्थी के कामों की जद्दोजहद या भाइयों का पिता के काम में हाथ बंटाना, ये सब उन्हें कभी पसंद नहीं आया. जिंदगी की रफ़्तार बढ़ानी थी सो मेट्रिक पास करते ही पिता को सीधा कह दिया की शहर जाऊँगा। पिता वैसे ही अपने तीन पुत्र और दो पुत्रियों के जीवन निर्वाह की जद्दोजहद में अपने थोड़े से बचे हुए पुश्तैनी खेतों सहारे बेहद धीमी रफ़्तार से गृहस्थी की गाडी खींच रहे थे, सबसे बड़े पुत्र का यह फैसला उन्हें व्याकुलता से भर गया....कहाँ तो सोचते थे की अब यह मेरे ऊपर के बोझ को हल्का करने में मेरी मदद करेगा और कहाँ इसका अचानक लिया गया यह फैसला। "लेकिन शहर जाकर करोगे क्या?" -- पिता के इस सवाल का सहाय बाबू ने बस इतना ही जवाब दिया कि मुझे यहाँ अपनी ज़िंदगी आप की ख़राब नहीं करनी मुझे इस दुनिया में बहुत कुछ पाना है ...... वो भी बहुत जल्दी। पिता के पास कहने को कुछ नहीं था. बेटे की आँखों में अनुनय नहीं निश्चय था अतः उनके लिए कहने को कुछ बचा भी नहीं था, पिता ने अपने बेटे की ख्वाहिश को पूरी करने के लिए अपनी पहले से ही बहुत थोड़े से बच रहे ज़मीन का एक और हिस्सा बेच दिया और बस..यहीं से सहाय बाबू की ज़िंदगी ने रफ़्तार पकड़ना शुरू कर दिया। रास्ते में ही सहाय बाबू ने जब चलती ट्रेन की खिड़की से सभी इंसानों को पीछे छुटते हुए देखा तब उनका यह यह एहसास और पुख्ता होने लगा की ज़िंदगी में रफ्तार ही तो सब कुछ है, और दूसरों से आगे निकल जाने का सुख अपने आप में कितना अद्भुद होता है.

उसके आगे की कहानी सहाय बाबू ने खुद गढ़ी. शहर की रफ़्तार के साथ अपनी रफ़्तार मिलाने के लिए उन्होंने पिता के द्वारा ज़मीन बेच कर दिए गए पैसों से छोटा सा व्यवसाय शुरू किया और अपनी ज़िंदगी की स्पीड को बढ़ाना शुरू किया। जल्दी ही वह अपने छोटे से व्यवसाय से ऊपर उठने के लिए हर वो रास्ता अपनाने लगे जिसमे चालाकियां थी, बेईमानियां थी, धोखा था, झूठ था, फरेब था और भी बहुत कुछ था जो नहीं होना चाहिए था. शुरुआत के दिनों में पिता के आये हुए खतों का कभी-कभार वो जवाब दे भी दिया करते थे,....धीरे-धीरे वो भी सिलसिला ख़त्म हो गया. खत तो अब भी आते थे परन्तु पढ़े बिना ही रखे रह जाते थे.

अब सहाय बाबू की ज़िंदगी ने पूरी रफ़्तार पकड़ ली थी. शहर में उनकी हस्ती थी और उनकी तरक्की देख लोग दांतों तले ऊँगली दबाते थे. और यह सब देखकर सहाय बाबू को वही रेलगाड़ी वाली फीलिंग आती थी, सबके पीछे छुटते जाने का अद्भुद एहसास। 

शहर के नामी व्यवसायी ने सहाय बाबू को अपना दामाद बनाना अपना अहोभाग्य समझा। धूमधाम से शादी हुई. उसी दिन गांव से खत भी आया था. इस बार यह खत उनके पिता ने नहीं बल्कि किसी और ने लिखी थी और उसमे सन्देश उनके पिता की मृत्यु का था. लेकिन वह खत भी अनपढ ही रह गया. पीछे छूटने वालों से मिलने को पीछे नहीं मुड़ा जाता। वक़्त गुज़रता रहा. गांव से अब खतो -किताबत समाप्त हो गयी थी, न उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश की कि उनके परिवार पे क्या गुजरी ना ही परिवार ने कभी उनकी ऊंचाइयों में हिस्सेदारी की ख्वाहिश की. 

सहाय बाबू बढ़ते ही चले गए। वक़्त गुजरने के साथ ही वह एक पुत्र के पिता बन चुके थे। कारोबार अपने उफान पे था.उन्हें मरने तक की फुर्सत नहीं थी. बेटे को शहर के सबसे महंगे स्छूल में दाखिला करवा दिया था, ताकि उसकी ज़िंदगी की स्पीड कभी लिमिट में बंधी न रहे। ऐसे ही वक़्त गुजरता रहा और देखते -देखते उनके बेटे की शिक्षा भी पूरी हो गयी। अब सहाय बाबू बुलंदियों के जिस मुकाम पे थे वहां उन्हें अपनों के सहारे की जरुरत थी, जानते थे की उनका पुत्र उनके कारोबार के इस विशाल वटवृक्ष को और पुष्पित पल्लवित करेगा । उन्हें अब थोड़े आराम की जरुरत थी. 

इस बारे में वह अपने पुत्र से चर्चा करने की सोच ही रहे थे की एक शाम खाने की मेज़ पर उनके पुत्र ने उनसे कहा की वह विदेश सेटल होना चाहता है. लेकिन क्यों? सहाय बाबू ने अचरज से पूछा।"क्योंकि यहाँ मेरे कैरियर को वो रफ़्तार हासिल नहीं होगी जो मै चाहता हूँ ". सहाय बाबू चुप रह गए। पुत्र विदेश चला गया और फिर कभी लौट के नहीं आया. शुरुआत के दिनों में उनका फ़ोन उठता था, कुशल क्षेम की बातें हो जाती थी लेकिन धीरे-धीरे उसके पास इतना वक़्त भी न रहा। सहाय बाबू अपने बेटे से जी भरकर बातें करना चाहते थे,ज़िंदगी के अपने अनुभव सुनना चाहते थे लेकिन पहले फ़ोन उठाना बंद हुआ फिर नम्बर ही बदल गया शायद। 

 पत्नी की मृत्यु हो गयी लेकिन पुत्र न आ सका। अब सहाय बाबू अपनी विशाल कोठी में अकेले रहते हैं। पिता के लिखे गए उन् सारे अनपढ़े खतों में लिखे हुए एक-एक शब्द को बार-बार पढ़ते हैं। ज्यादा बाहर नहीं निकलते . ... क्यूंकि शहर की रफ़्तार से उन्हें डर लगता है ........ अनलिमिटेड स्पीड।  

बोर्ड पर वाहनों के लिए लिखा हुआ स्पीड लिमिट शायद ज़िंदगी पे भी उतना ही लागु होता है।  



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