sukesh mishra

Comedy Drama

4.6  

sukesh mishra

Comedy Drama

उत्सव

उत्सव

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आज फिर मै बहुत असमंजस स्थिति में फंस गया हूँ. पत्नी मायके जाने की ज़िद ठान बैठी है, मेरे ससुराल में कोई उत्सव है, उन्होंने सभी रिश्तेदारों को न्योता दिया है, जबसे पत्नी ने यह सुना है तब से चिड़िया की तरह फुदक रही है. उसे कौन सी साड़ी पहननी चाहिए? बच्चों पर कौन से कपडे फिट आएंगे? मुझे कौन से रंग की शर्ट पहननी है? संदेशे में क्या ले जाना उचित होगा? ...... आदि आदि....... ऐसे ढेरों सवाल उसके सम्मुख यक्ष प्रश्न बने मुँह बाये खड़े हैं. मुझे इन सब बातों की कोई चिंता नहीं है क्यूंकि मै अच्छी तरह जानता हूँ कि इन सारे सवालों के हल वो निकाल ही लेगी, मुझे चिंता इस बात से है कि वहाँ अन्य बहुत सारे प्रबुद्ध विद्वान् रिश्तेदार भी होंगे जिनके वैभव,देदीप्यमान सामाजिक प्रतिष्ठा, गंभीर विद्वतआभा, वाक्चातुर्य, गहरे सामजिक प्रश्नों के श्रेष्ठ उत्तर देने की अतुलनीय कला, इत्यादि अनेकानेक गुणों को देखकर अपने ज्ञान, विवेक और धन की क्षुद्रता के बोध से मन लज्जा से भर जाएगा . पिछली बार ऐसे ही किसी उत्सव में जब मै अपने ससुराल गया था, तब वहां विद्वत्मण्डली में घिर गया था, बड़ी आफत थी, गए थे रोज़ा खोलने गले पड़ी नमाज़ वाली स्थिति हो गयी थी.बड़ी मुश्किल से जान छूटी थी।

"कोई बहाना करके खुद का जाना मुल्तवी करवा लेता हूँ" मन ही मन इस बात का दृढ़ निश्चय करके पत्नी को कहा,"सुनती हो ?"

पत्नी का फुदकना यंत्रचालित खिलौने सा हठात रुक गया, सशंकित नज़रों से मेरी ओर देखते हुए बोली, " न जाने का कोई बहाना मै नहीं सुनूंगी, पहले ही कहे देती हूँ।"

ये वेताल को वश में करके रखती है क्या? कैसे जान जाती है कि मै इससे क्या कहने वाला हूँ ? 

"देखो, मुझे बहुत काम है, मेरा जाना न हो सकेगा, तुम बच्चों को लेकर चली जाओ" मैंने आर्तनाद सा किया 

"तुमको तो मेरे मायके वालों से चिढ़ है,सीधे सीधे ये क्यों नहीं कहते हो"? पत्नी रुआंसी हो उठी थी. यह सोचकर की पापा खुद न जाने की बात करते करते कहीं सबके जाने का कार्यक्रम न रद्द कर दें....बच्चे भी हताश से दिखाई पड़ने लगे थे.

"लेकिन कुछ जरुरी काम............!"

" हाँ हाँ कलक्टरी करते हो न, मै भी अच्छे से जानती हूँ कौन सा जरुरी काम है तुम्हें। सारा दिन घर में पलंग तोड़ते हुए उपन्यास पढ़ते रहते हो.. यही तुम्हारा जरुरी काम है. मैं कहे देती हूँ इस बार तुम्हारा कोई बहाना नहीं चलेगा,भला चाहते हो तो चुपचाप उठकर तैयार हो जाओ".

अंततोगत्वा मुझे उन सबके सामने हथियार डालना ही पड़ा, बुझे हुए मन से मैंने जाने की हामी भर दी.

ससुराल में प्रवेश करते ही मेरा सामना पहले से पधारे विद्वत्मण्डली से हुआ, जो बैठकखाने में बैठने योग्य लगभग सभी स्थानों पर अपना कब्ज़ा जमा चुके थे, और उनकी निगाहें भूखे भेड़ियों की भांति उस व्यक्ति को तलाश रही थी जिसके अज्ञान और अविवेक का यह भोजन करने वाले थे, मेरे वहां प्रवेश करते ही मानों इनकी तलाश समाप्त हो गयी.

"आइयेआइये मेहमान जी,कुशल तो हैं? आने में कोई तकलीफ तो नहीं हुई?" रेशमी धोतीकुरता धारण किये एक रिश्तेदार ने मेरा स्वागत किया, मैंने पनाह मांगती निगाहों से अपनी पत्नी की ओर देखा, लेकिन यह क्या?? वह तो इस समरभूमि में मुझे अकेला छोड़कर कब की बच्चों सहित अंदर चली गयी थी. बचाव की रहीसही उम्मीद भी जाती रही.

"हाँ हाँ........सब कुशल है, आप कैसे हैं? मैंने लगभग घिघियाते हुए उनसे कहा. साथ ही मै किसी कोने वाली जगह भी तलाश रहा था ताकि कमरे की अन्य जड़ वस्तुओं के साथ इस तरह एकाकार हो जाऊं कि किसी को मेरी उपस्थिति का एहसास ही न हो, लेकिन मेरी यह मनोकामना भी पूरी नहीं हुई, दो विद्वतजनों ने सोफे पर थोड़ा थोड़ा खिसक कर मेरे लिए स्थान रिक्त कर दिया था और साग्रह मेरी और देख रहे थे. उनके आग्रह पूर्ण व्यवहार के प्रत्युत्तर में मुझे वहां बैठना ही था,सो बैठ गया.

"तो मेहमानजी? आजकल क्या सब हो रहा है? पत्नी के बड़े वाले मामाजी ने आक्रामक मुद्रा में समर की शुरुआत करते हुए कहा.

"बस, यूँ ही" मैने रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार कर ली.

"यूँ ही का क्या मतलब होता है? सुनने में आया था कि आप की कहीं नौकरी लगी है?"

"नहीं,अभी तक तो नहीं" मैंने सकुचाते हुए कहा.

"इसका मतलब अभी तक पिताजी के होटल में से ही जीवनयापन हो रहा है" बड़ी मूंछ वाले एक रिश्तेदार ने कहकहा सा लगाया, और अपनी ही धुन में कहते चले गए, " आज कल के लड़कों की शिक्षादीक्षा में वो बात रही ही नहीं, इसीलिए उन्हें शिक्षा के अनुरूप नौकरी नही मिलती। हमारे जमाने के मैट्रिक पास विद्यार्थी आज के समय के पोस्ट ग्रेजुएट लड़कों से ज्यादा शिक्षित होते थे" फिर निगाहें मेरी तरफ करते हुए कहा "वैसे आपकी शिक्षा कहाँ तक हुई है ?"

"बी.ए किया है"

"तभी तो........आज कल के बी. ए."  उनके चेहरे का भाव ऐसा हो गया जैसे अभीअभी कुनैन गटकना पड़ा हो.

"आप ऐसा नहीं कह सकते हैं", एक दुबले पतले आधी उम्र के कोटधारी रिश्तेदार ने मूंछ वाले का प्रतिवाद करते हुए कहा, " मेरा लड़का आजकल की शिक्षा प्रणाली से ही पढ़कर अमेरिका की एक बड़ी कम्पनी में काम कर रहा है,लाखों की सैलरी है" वाक्य पूरा होतेहोते उनकी आँखें गर्व से दमकने लगी थीं. अपने कथन के प्रभाव का आकलन करने के लिए उन्होंने सब ओर नज़रें दौड़ायीं। मनवांछित प्रभाव पड़ता देख वे आश्वस्त हुए.

"कहाँ से पढ़ा है आपका लड़का?" मूंछ वाले ने इस आशा से उनसे पूछा की उनके अभेद्य किले की दीवार में कहीं कोई सुराख़ ढूंढ सकें।

"एम्.बी.ए किया है.........आईआईएम अहमदाबाद से".

मूंछ वाला रिश्तेदार इस अमोघ अस्त्र के सामने निस्तेज हो गया.बाकि रिस्तेदार भी अधमरे से हो उठे थे.कोट वाले ने निर्णायक जीत के भाव से सबकी ओर देखा, अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हो उन्होंने मेरी और देखते हुए कहा " कहीं अप्लाई नहीं करते हो नौकरी के लिए? रेलवे वगैरह में तो सी और डी ग्रेड की बहुत सारी वैकेंसी आती ही रहती है"

"निर्मला के तो भाग ही फूट गए" सन जैसे पके बालों वाले एक वृद्ध रिश्तेदार ने मेरे नकारेपन पर अंतिम मुहर सा लगाते हुए कहा हुए कहा.  निर्मला मेरी पत्नी का नाम है.

"मैं कोशिश कर रह हूँ" नज़रें झुकाये हुए मैंने अस्फुट शब्दों में कहा.

" कोशिश !! हुंह !!! मेघनाद जैसे उग्र स्वभाव वाला मेरा छोटा साला मेरी ओर आंखें तरेरते हुए बोला, 'सीधेसीधे क्यों नही कहते कि बैठ के खाने की आदत हो गई है आपको'।

'दामाद जी को ऐसा नहीं कहते चेतन, इतना सुन के तो गूंगा भी बोल पड़े,ये तो फिर भी समझ रखते हैं...है ना दामाद जी? लकवाग्रस्त मेरे चाचा ससुर कोने के बिस्तर से पड़ेपड़े ही बोले।

"म..मैं माँ जी से मिलकर आता हूँ जरा" मैंने सोचा अभी यहाँ से पलायन कर जाने में ही भलाई है. परन्तु चेतन ने मेरी इस हार की स्वीकारोक्ति पर भी कोई दया नहीं दिखाई और बोला, "माँ बाजार गयी हैं,आती हैं तो मिल लीजियेगा। और ये क्या? आते ही अंदर जनानखाने में? कभी मर्दों के बीच भी बैठा करिये। जब तक अपने अंदर की कमियों को स्वीकार नहीं करियेगा तबतक आप ऐसे ही बुड़बक बने रहिएगा".

"आज यह धरती फटती क्यों नहीं? कितना अच्छा हो कि मैं उसमे समा जाता?" मेरे अंतर्मन ने आर्तनाद सा किया। लेकिन धरती नहीं फटनी थी सो नहीं फटी।

"फूफा जी आ गए, फूफा जी आ गए" संयोग से मुझे दूर से देखकर मेरी सलहज के दोनों बच्चे उछलतेकूदते मेरे पास आ गए और मुझे अपने साथ बाहर की ओर चलने के लिए मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगे. मुझे उस घडी वो बच्चे देवदूत सरीखे दीख पड़े. यद्यपि वो दोनों मिलकर भी मुझे खींच नहीं सकते थे, फिर भी मैंने ऐसा अभिनय किया मानो में उनके जोर से खिंचा चला जा रहा हूँ.

बाहर आकर मैंने मीलों लम्बी चैन की सांस ली और बच्चों के साथ बातें करने का इस प्रकार अभिनय करने लगा जैसे मै सब कुछ भूलकर उनकी बातों में मशगूल होऊं परन्तु मेरा ध्यान अंदर बैठकखाने की तरफ ही था

" पता नहीं क्या देखकर मनसुख ने अपनी सोने सी बेटी का ब्याह इस नाकारे इंसान से कर दिया,........!" लकवाग्रस्त चाचा ससुर की आवाज बाहर तक आ रही थी।

. बच्चों ने मुझसे 'तोता उड़ मैना उड़' खेलने का प्रस्ताव रखा जिसे मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया और हम बरामदे पर मेहमानों के लिए बिछी हुई दरी पर बैठकर खेलने लगे।

मेहमानों का आना अभी भी लगातार जारी था। 

(क्रमशः)


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