बाबा
बाबा
'बाबाजी, मेरे बच्चे के सिर पे हाथ रखकर आशीर्वाद दे दो' एक पैंतीस-चालीस बरस की औरत ने अपने बालक को लगभग घसीटते हुए लाकर उसके पास खड़ा कर दिया।
धीरेंद्र ने बालक के सर पर हाथ फेरते हुए कुछ मंत्र बुदबुदाने का अभिनय किया। औरत प्रसन्न हो गयी और बोली, "क्या कहूं बाबाजी, किसी की सुनता ही नहीं, हमेशा बन्दर की तरह उछलता-कूदता रहता है, पढ़ने में जरा भी मन नहीं लगता, कोई तावीज़ हो तो ............"
"देख माई, भगवान् सबका भला करेंगे, मैंने इसे आशीर्वाद दिया है, तावीज़ की कोई जरुरत नहीं अब इसे"
औरत ने अनिच्छा के भाव से सहमति में सर हिलाया।
"अब कुछ भिक्षा दे दे माई" फ़कीर तेरे सामने झोली फैलाता है" --- धीरेन्द्र ने अपना गेरुआ झोला आगे फैलाते हुए कहा.
"जी महराज" कहती हुई वो बालक को लेकर घर के अंदर कुछ लाने चली गयी. धीरेन्द्र मन ही मन कुढ़ कर रह गया, एक धेले भर की भिक्षा पाने के लिए क्या क्या स्वांग नहीं रचाना पड़ता है, एक तो उसे संस्कृत में ढंग की कोई मंत्र नहीं आती, जो आती भी है वो आधी-अधूरी। लेकिन सीखने का समय भी कहाँ मिल पाता है उसे? कोई एक निश्चित ठौर-ठिकाना रहता तो दो एक किताबें भी रख लेता।
"ये लो बाबाजी" कहते हुए गृहस्वामिनी ने उसको देने हेतु कटोरा आगे किया। धीरेन्द्र ने देखा कि उस कटोरे में मुश्किल से छटांक भर चावल था. उसका मन हुआ कि गृहस्वामिनी से इतनी कम भिक्षा के लिए शिकायत करे.... लेकिन शहरी लोगों के रंग-ढंग से वह अच्छी तरह वाकिफ था. ये लोग चाहे अपने भोग-विलास के लिए हज़ारों रूपये उड़ा दें,लेकिन दान-पुण्य के नाम पर इनकी मुट्ठी नहीं खुलती, लाखों का आशीर्वाद चाहिए,धन-धान्य, सुख-सम्पदा,तेजस्वी बालक, नौकरी-तरक्की सब चाहिए.........लेकिन कीमत छटांक भर चावल से अधिक नहीं दे सकते। शिकायती नेत्रों से उसने गृहस्वामिनी को देखा, परंतु गृहस्वामिनी के चेहरे के भाव देखकर उसे यह भान हो गया की यहाँ इससे अधिक की कोई उम्मीद नहीं।
"भगवान् तुम्हारा कल्याण करें माई" -- कहता हुआ वह अगले घर की तरफ बढ़ गया.
धीरेन्द्र पिछले कई बरस से भिक्षाटन का कार्य कर रहा था, मां बचपन में ही स्वर्ग सिधार गई, उसकी चिता की राख ठंढी भी नहीं हुई थी कि बाप दूसरा ब्याह कर उसके लिए सौतेली माँ लेता आया. तभी से उसके जीवन में भय,भूख और प्रताड़ना के सिवाय कुछ भी न रहा...पढ़ाई बंद करवा दी गई। अहले सुबह से घर के सारे काम करना और शाम को माँ की शिकायत पर रोज बाप के हाथों पिटना और माँ को याद करके रोते-रोते सो जाना,...........यही उसकी नियति बन गई। आखिकार एक दिन वह घर से भाग गया।
उसके पुराने दुर्दिनो की जगह अब नए कष्टों ने ले ली।पहले तो कई-कई दिनों तक भूखा-प्यासा मारा-मारा फिरता रहा, कभी रेलवे-स्टेशन,कभी बस-स्टैंड,कभी इस गली,कभी उस मुहल्ला। भीख मांगता तो स्थाई भिखारी कुत्तों की तरह मारते, काम मांगता तो कोई देता नहीं। जाय तो कहां जाय? करे तो क्या करे?
ऐसी ही अवस्था में एक दिन वह कूड़ेदान से कुछ भोजन प्राप्त होने की आशा में में पुरानी पन्नियों में बंधे तरह तरह के कचरों का मुआयना कर रहा था कि उसमे बैठे खजैले कुत्ते ने उसे काट खाया, दर्द से बिलबिलाता हुआ वह पास ही में बह रहे गंदे नाले में अपने हाथ से बहते हुए खून को धो रहा था कि वहां से गुजर रहे साधु बाबा ने उसे रोते हुए देखा।पास आकर पूछने पर धीरेंद्र ने रोते-रोते व्यथा भरी कहानी उन्हें सुनाई। बाबा उसे अपने साथ अपनी कुटिया में ले गए।बाबाजी शहर से बाहर कम आबादी वाले इलाके में टाट-टप्पर डाल कर जैसे-तैसे गुजर -बसर कर रहे थे।उन्हें भी एक सहचर मिल गया और तबसे वह और बाबाजी साथ-साथ भिक्षा मांग करते। साधु बाबा ने कुछ ही दिनों में धीरेंद्र को एक सफल भिक्षुक के रूप में प्रशिक्षित कर दिया।
समय गुजरता गया, साधु बाबा में अब भिक्षाटन की शक्ति न रही।अब धीरेंद्र अकेले ही गली-मुहल्ले में भिक्षाटन किया करता और साधु बाबा का भी भरण पोषण करता। इस लिहाज से उसे अब ज्यादा भिक्षा की जरूरत होती थी,परंतु क्या करे? लोगों को उसकी बढ़ती हुई व्यक्तिगत आवश्यकताओं से क्या लेना-देना?
धूप बहुत तीखी हो गई थी और सुबह से अब तक वह काफी गलियों में घूम चुका था।परंतु अभी भी उसका पात्र बहुत हद तक खाली ही था।आगे निर्धन परिवारों की झोपड़पट्टियां थी। उसे जोरों की प्यास भी लग आई थी।सोचा की बस...इस बस्ती में दो चार घर घूम लेता हूं,जल भी पी लूंगा कहीं, यह विचार करता हुआ एक जराजीर्ण झोंपड़े के सामने आवाज लगाई। उस घर से एक बूढ़ी औरत बाहर निकली, 'भिक्षा दे माई, भोलेनाथ तुम्हारा कल्याण करें'।यद्यपि धीरेंद्र को उस औरत के जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों से उसकी दयनीय आर्थिक स्थिति का अंदाजा लग गया और यहां से कुछ प्राप्त होने की आशा क्षीण हो चली। फिर भी वह खड़ा रहा।
बुढ़िया अंदर गई और कुछ देर में एक खाली कटोरी लेकर आई और कहा, 'बाबाजी, मेरे पास तुमको देने की कुछ भी नहीं, बरसों पूर्व मुझसे एक बहुत बड़ी भूल हुई थी। मैंने अपने सौतेले पुत्र को बहुत कष्ट दिया और अंततः उसे घर से भागने पर मजबूर कर दिया था। मैंने उस बालक की व्यथा का आनंद लिया और उसके घर से भागने की खुशी में दिए जलाए थे। ईश्वर ने मेरे पापों का मुझे भयंकर दंड दिया। धीरे-धीरे मुझसे मेरा सब कुछ छिन गया। मुझे नहीं मालूम की मुझे आज अपनी करुण कथा आपको सुनाने का मन क्यों किया। आप बड़े तेजस्वी संत लगते हैं इसीलिए आपको खाली हाथ न जाने दूंगी।मेरे पास बस यही एक पात्र बचा है देने को। इसे आप ले जाइए और जब भी इस पात्र में आप कुछ खाएं तो ईश्वर से कहिएगा कि मेरा बालक अगर कहीं जीवित हो तो उसे कभी भोजन हेतु भटकना न पड़े, मैं अपने किए की उचित ही दंड भोग रही हूं, लेकिन वह जहां भी हो सुखी हो'.
धीरेंद्र पात्र लेने हेतु आगे बढ़ा। देखा कि वृद्धा के सजल नयनों से दो स्वेत बूंद उस पात्र में गिर गए..........वृद्धा ने देखा कि पात्र लेते हुए बाबाजी के नेत्रों से भी दो बूंद नीर उस पात्र में समा गए।