sukesh mishra

Abstract Drama Tragedy

4.5  

sukesh mishra

Abstract Drama Tragedy

मुखौटे

मुखौटे

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प्रोफेसर लाल सर से मेरा पहला परिचय स्नातकोत्तर की पहली ही क्लास में हुआ था। उनकी उम्र करीव पचास-पचपन वर्ष के आस-पास रही होगी। छ फ़ीट लम्बे,गौर वर्ण,उन्नत ललाट। कोट पतलून और सलीके से बंधी हुई टाई उनपर विशेष रूप से जंच रही थी। पहली ही नज़र में उनके व्यक्तित्व ने मुझे उनका मुरीद बना दिया था। वे यूनिवर्सिटी के राजनीती विज्ञान संकाय के हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट थे और कक्षा के नए छात्रों का उनसे यह पहला परिचय था। सबने उन्हें अपना परिचय दिया और फिर जब उन्होंने अपने गंभीर स्वर में व्याख्यान देना शुरू किया तो उनके प्रत्येक शब्द से विद्वता की आभा टपक रही थी। मैं मंत्रमुग्ध सा उन्हें सुनता रहा, कब उनकी कक्षा समाप्त हो गयी पता ही नहीं चला।

मैं वैसे तो अपने विद्यालय के दिनों से ही अंतर्मुखी स्वभाव का रहा हूँ और कॉलेज में भी मेरा अपने सहपाठियों अथवा शिक्षकों से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं रहा।और न ही परिचय की कोई उत्सुकता रही। मैं तो बस।।अपने किताबों में खोया रहता था।परन्तु स्नातकोत्तर की मेरी पहली ही क्लास में उनसे हुआयह संक्षिप्त परिचय मेरे मन पर एक अमिट छाप छोड़ गया। 

आने वाले दिनों में मैं उनका पीरियड कभी भी मिस नहीं करता था। जब वो अपना व्याख्यान आरम्भ करते तो जैसे मैं राजनीति विषय की उन घुमावदार गलियों में प्रफुल्लित हिरण सा विचरण करता रहता था और वह नीरस विषय मुझे परियों की कहानियों सी लगती। जब वो कक्षा में फ्रांस की राज्यक्रांति अथवा अब्राहम लिंकन के गेटिसबर्ग में लोकतंत्र पर दिए गए भाषण की चर्चा करते तो मेरे रोम-रोम में सिहरन दौड़ जाती। कार्ल मार्क्स के साम्यवाद को मेरी नज़र में उनके ओजस्वी आवाज ने और भी ज्यादा गरिमा प्रदान कर दी थी।उनके द्वारा पढाये गए हर अध्याय मानो साकार रूप लेकर मेरे मानस-पटल पर अंकित हो जाते जाया करते थे।  

मैंने कक्षा के बाहर अपने आराध्य गुरुदेव का सामीप्य प्राप्त करने के बहुतेरे प्रयास किये। जब वो ग्यारह बजे के आस-पास अपनी सफ़ेद रंग की आल्टो कार से उतरते तब मैं जान-बूझकर उनके आस-पास खड़ा रहता। वो मेरे अस्तित्व से बेखबर अपनी रोबीली चाल में कॉमन रूम की ओर प्रस्थान कर जाते। कक्षा में भी प्रश्नोत्तरी सत्र में मैं उनसे राजनीती से सम्बंधित कोई ऐसे गहरे प्रश्न पूछने की कोशिश में लगा रहता जो औरों के सामान्य प्रश्नों से अलग हो और ताकि उनका ध्यान मेरी ओर विशेष रूप से आकृष्ट हो। परन्तु एक-आध बार प्रयास करने के बावजूद उन्होंने मेरी ओर विशेष ध्यान नहीं दिया और मुझे तो लगता है कि वह कक्षा में मेरी उपस्थिति से भी बेखबर ही रहे। 

मैंने उन्हें कभी भी साधारण वस्त्रों में नहीं देखा। वह अपने व्यक्तित्व को बनाये रखने के लिए हमेशा चैतन्य रहते थे। कक्षा के बाहर वह न तो किसी से ज्यादा बात करते थे और न ही उनसे बात करने की जल्दी किसी की हिम्मत होती थी। वह हमेश अपने साथी प्रोफेसरों से भी एक निश्चित दूरी बनाये रखते थे और छात्रों से तो न के बराबर बात करते थे।यद्यपि कक्षा में उनका छात्रों से व्यवहार बड़ा ही मित्रवत होता था और वहां उनका स्वरुप बाहर वाले उनके स्वरुप से काफी हद तक भिन्न होता था तथापि अन्य प्रोफेसरों की कक्षा के विपरीत उनके अध्यापन के दौरान एक निस्तब्धता सी छायी रहती और समूची कक्षा में सिर्फ उनकी ही आवाज गूंजती रहती थी।

प्रथम सत्र के परीक्षाफल का प्रकाशन हो चुका था और छात्रों को उनके अंक के बारे में बताने के लिए आज कक्षा में वह खुद आये थे। वह रहस्यमयी मुस्कराहट के साथ कक्षा में दाखिल हुए और अपने हाथ में लिए परीक्षाफल के साथ कुर्सी पर विराजमान हो गए। मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था।उन्होंने कहना शुरू किया," राजनीतिविज्ञान के इस पहले सत्र के आप सब छात्रों ने इस वर्ष बहुत ही कठिन परिश्रम किया है जो कि आपके परीक्षाफल में परिलक्षित भी हो रहा है।"। उन्होंने अपने शब्दों के मध्य थोड़ा विश्राम लिया और फिर कहना शुरू किया," परन्तु एक अत्यंत ही आश्चर्य की बात मेरे शैक्षणिक जीवन में मुझे आज देखने को मिली है कि इस सम्पूर्ण क्लास में जिस छात्र ने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया है उसे मैं न तो व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ और न ही मैं उसे चेहरे से पहचानता हूँ ।मेरे लिए यह बहुत पीड़ा की बात है।" उन्होंने फिर थोड़ा विश्राम लिया और कहना शुरू किया। " इस वर्ष प्रथम स्थान पाने वाले छात्र का नाम है।।"! उन्होंने मेरा नाम लिया। सहसा मुझे अपने कानों पे विश्वास ही नहीं हुआ। "रत्नेश कुमार ने प्रथम स्थान प्राप्त किया है, वो जो भी हैं कृपया कर अपनी सीट पे खड़े हो जायं"। मैं थरथराते क़दमों से खड़ा हुआ। उन्होंने पहली बार मुझसे नज़रें मिला कर देखा। फिर वो उठकर मेरे पास आये और मेरी पीठ थपथपाते हुए कहा, "तुम तो सच में रत्नों के ईश्वर हो । सर्वश्रेष्ठ रत्न। " मैंने भावविह्वल होकर उनके चरण स्पर्श कर लिए और वो देर तक मेरी पीठ थपथपाते रहे। 

उस दिन के पश्चात यदा-कदा हमारी बातें होने लगी। कक्षा में वह अब विशेष रूप से मुझसे प्रश्न किया करते थे।मेरे दिए हुए उत्तरों को गौर से सुनते थे और अन्य छात्रों को मेरा उदाहरण दिया करते थे। 

एक दिन पीरियड समाप्त होने के पश्चात जब मैं घर जाने के लिए निकला तो जोरों की बरसात आ गयी। मैं यूनिवर्सिटी के बाहर निकलने वाले रास्ते पे ही था। अचानक से बरसने वाली इस बरसात से बचने के लिए मैं व्याकुल होकर आश्रय की तलाश कर ही रहा था कि मुझे लाल सर की सफ़ेद ऑल्टो आती हुई दिखाई पड़ी। मैं उनके सम्मान में बारिश में भीगते हुए भी सड़क के किनारे खड़ा हो गया। नज़दीक आकर कार रुक गयी और अन्दर से लाल सर ने मुझसे अपनी गाडी में बैठने को कहा। मैं अत्यधिक सकुचाता हुआ उनकी बगल वाली सीट पे आ के बैठ गया।

"घर जा रहे हो" -- उन्होंने गाड़ी चलाते हुए मुझसे पूछा। 

"जी सर " -- मैंने संक्षिप्त सा जवाब दिया। 

"ठीक है चलो मेरे घर, चाय पी लेना, तबतक बारिश भी छूट जाएगी"।। मैंने सहमति में सर हिला दिया। मेरे लिए इससे अधिक सम्मान की बात और क्या हो सकती थी भला।

उनका घर एक विशाल बंगला था। लॉन के किनारे गाड़ी पार्क कर वो मुझे अन्दर लिवा लाये। सामने लम्बा-चौड़ा बरामदा था जिस पर बेहद खुबसूरत बेंत की कुर्सियां और टेबल लगे हुए थे। बारिश अभी भी हो रही थी और आधा बरामदा पानी की फुहारों से भीग गया था। फ़र्श पर हिंदी और अंग्रेजी के कुछ अखबार गिरे हुए थे जो बारिश की बौछार से पूरी तरह भीग गए थे। उन्होंने मुझे बेंत की एक कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और जोर से अपने नौकर को आवाज लगाई। धोती और बनियाइन पहने एक कृशकाय अधेड़ उनके सामने बागीचे से भागता हुआ आया।

 " तुमने अखबार उठा कर क्यों नहीं रखा बनवारी" उन्होंने लगभग चिल्लाते हुए नौकर से कहा। 

"मालिक, बरसात की वजह से कोने वाला अमरुद का एक पेड़ गिर गया है,कहीं सारे अमरुद ख़राब न हो जायं इससे वहां,।"!

"तो अखबार उठाने में कितनी देर लगती है भला" -- कहते हुए उन्हने बनवारी को एक भद्दी सी गाली दी। बनवारी बारिश में भीगा होने और मालिक की दहाड़ और गाली सुनकर थर-थर कांपता हुआ हाथ जोड़े वहीँ खड़ा रहा।

"अब मेरा मुंह क्या देख रहे हो? जाओ चाय तैयार करो"-- उन्होंने फिर चिल्लाकर कहा 

अचानक उनको मेरे वहां होने का भान हुआ और वो थोडा सा झेंप गए। "ये नौकर भी न, मेरे यूनिवर्सिटी जाते ही सब काम-धाम छोड़कर बैठ जाते हैं, तुम बैठो मैं कपडे बदलकर आता हूँ" -- कहते हुए वे भीतर चले गए।

बारिश और तेज़ हो गयी थी। थोड़ी देर में वो लुंगी बनियाइन पहने हुए बाहर आये और मेरे सामने एक कुर्सी खींचकर बैठ गए। 

"और बताओ,आगे क्या करने का इरादा है?" उन्होंने बातों का सिलसिला शुरू करते हुए मुझसे पूछा। 

"अभी कुछ सोचा नहीं सर"

"तुम सिविल सर्विस की तैयारी क्यूँ नहीं करते? बहुत स्कोप है उसमे" कहते हुए वे मुझे सिविल सर्विस के महत्व और तैयारी के विषय में विस्तारपूर्वक बताने लगे। लेकिन मेरे कानों तक उनकी आवाज पहुँच ही नहीं रही थी। मेरे कानो में तो लगातार उनके द्वारा बनवारी को दी हुई वो भद्दी गाली ही गूंज रही थी। बारिश और तेज़ ही होती जा रही थी जिसकी वजह से सुन्दर क्यारियों की मिटटी बारिश की तेज़ बूंदों में अपना आकार खोती चली जा रही थी और करीने से सजा हुआ बागीचा बदशक्ल हुआ जा रहा था। मेरे अन्दर भी किसी के नफासत से तैयार हुई मूर्ति बरसात की उन बूंदों के साथ बिखरती और बदरंग होती जा रही थी। 

बनवारी चाय ले आया था। वह अब भी थर-थर काँप रहा था। 

"लो चाय लो" उन्होंने मुझे चाय का प्याला पकडाते हुए कहा। मैंने उनकी ओर देखा। उनके बाल बारिश में भीग कर बेतरतीब हो गए थे और चेहरे पर वो चिर-परिचित आभा मुझे कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। उस शाम की बारिश में बहुत कुछ दरकता हुआ जा रहा था।


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