Amit Nehra

Inspirational

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Amit Nehra

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नींव रखी नई औद्योगिक क्रांति की पर कहलाया किसान नेता

नींव रखी नई औद्योगिक क्रांति की पर कहलाया किसान नेता

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(चौधरी अजित सिंह पर विशेष लेख)


"चौधरी चरण सिंह के पीछे-पीछे कुर्सी रहती थी,

लेकिन चौधरी अजित सिंह कुर्सी के पीछे-पीछे रहते हैं।"


मैंने यह बात अनेक दफा बहुत से लोगों के मुँह से सुनी है।

ये सुनकर मुझे एक लोकोक्ति याद आ जाती है। लोकोक्ति है कि बड़े लोगों को बच्चे पैदा नहीं करने चाहियें। इसका मतलब यह है कि लोग बच्चों में बाप की खूबियां ढूँढने लगते हैं और दोनों की तुलना होने लगती है। इसका कुप्रभाव यह होता है कि बच्चों द्वारा किये गए महत्वपूर्ण कार्यों का भी मूल्यांकन सही तरीके से नहीं हो पाता और उन्हें यथोचित श्रेय नहीं मिल पाता। उनकी सारी उम्र पिता के बड़प्पन के साये के नीचे गुजर जाती है। लोग उन्हें हमेशा अंडर एस्टीमेट करते हैं।

चौधरी अजित सिंह के मामले में भी ऐसा ही हुआ है। उनके पिता चौधरी चरण सिंह निःसन्देह बहुत बड़े राजनीतिज्ञ रहे हैं। किसान और कमेरे वर्गों में उन्होंने राजनीतिक चेतना जगाई, जाति और धर्म के बंधन तोड़े और देश की राजनीति के शिखर यानी प्रधानमंत्री के पद पर भी आसीन हुए। चौधरी चरण सिंह ने हिंदी भाषी क्षेत्र में किसान और कमेरे वर्ग के करोड़ों लोगों में अपनी पैठ बनाई। वे उनसे राजनीतिक ही नहीं बल्कि भावनात्मक रूप से भी जुड़े। जब वर्ष 1987 में चौधरी चरण सिंह का देहांत हुआ तो उन्होंने अपने पीछे बहुत बड़ी राजनीतिक विरासत छोड़ी। लोग काफी हद तक ठीक ही कहते हैं कि कुर्सी यानी सत्ता चौधरी चरण सिंह के पीछे-पीछे रहती थी। उनका व्यक्तित्व था ही इतना विराट कि सत्ता उनके सामने बौनी दिखाई देती थी। इसकी वजह यह थी कि वे 1937 से लगातार राजनीति में सक्रिय रहे और इतने लोकप्रिय हुए कि अपने पूरे पॉलिटिकल कैरियर में सिर्फ एक बार ही चुनाव हारे। दूसरी तरफ चौधरी अजित सिंह का प्रारंभिक जीवन एक राजनेता के रूप में नहीं रहा। अतः उन्हें किसानों और कमेरे वर्ग को ज्यादा से ज्यादा लाभ दिलाने के लिए समय-समय पर सरकारों में शामिल होना पड़ा। यही नहीं जब उन्हें सत्ता में रहना उचित नहीं लगा तो कुर्सी को स्वेच्छा से छोड़ भी दिया।

चौधरी अजित सिंह, चौधरी चरण सिंह के पुत्र जरूर थे मगर चौधरी चरण सिंह ने अपने राजनैतिक शिखरकाल में कभी भी उन्हें अपनी राजनीतिक विरासत सौंपने की नहीं सोची। उन्हें न कभी राजनीतिक रूप में साथ रखा न अपनी पार्टी में कोई पद दिया। अजित सिंह को कह दिया गया था कि अपना कैरियर खुद चुनो।

ऐसे में अजित सिंह ने अपना रास्ता खुद बनाया।

12 फरवरी 1939 को मेरठ के भड़ोला में जन्मे अजित सिंह ने लखनऊ यूनिवर्सिटी से बीएससी की तथा उस समय भारत के श्रेष्ठतम शिक्षण संस्थान आईआईटी खड़कपुर से बीटेक की डिग्री हासिल की। इसके बाद वे संयुक्त राज्य अमेरिका चले गए। वहाँ के इलिनाइस इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी से उन्होंने कम्प्यूटर साइंस में मास्टर ऑफ साइंस किया। अजीत सिंह ने लगभग 15 वर्ष अमेरिका की कम्‍प्‍यूटर इंडस्ट्री में कार्य भी किया जिसमें विश्व प्रसिद्ध कम्प्यूटर कम्पनी आईबीएम शामिल है। सत्तर के दशक में जब भारत में ज्यादातर लोगों को कम्प्यूटर शब्द का पता भी नहीं था तब अजित सिंह कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में एक्सपर्ट हो चुके थे। उनकी जिंदगी राजनीति से दूर, बढ़िया और मजे में गुजर रही थी। लेकिन 90 के दशक की शुरुआत में चौधरी चरण सिंह का स्वास्थ्य खराब रहने लगा। उनके अनुयायियों में चिंता बढ़ने लगी कि चौधरी साहब के बाद उनकी विरासत को कौन सम्भालेगा ? सभी ने फैसला लिया कि अजित सिंह को वापस भारत बुला लिया जाये। हालांकि चौधरी चरण सिंह और खुद अजित सिंह इस फैसले के खिलाफ थे लेकिन पार्टी से जुड़े लोगों की भावनाओं और दबाव के आगे उन्हें झुकना पड़ा। इसके चलते 1982-83 में चौधरी अजित सिंह अमेरिका में अपनी जमी-जमाई नौकरी छोड़ कर पिता की राजनीतिक विरासत को संभालने भारत में आ गए। चौधरी चरण सिंह के समर्थकों ने उन्हें छोटे चौधरी का खिताब दिया।

1986 में अजित सिंह पहली बार राज्‍यसभा चुनावों में निर्वाचित होकर राज्यसभा सदस्य बने। अगले साल 1987 में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं, इस साल 29 मई को चौधरी चरण सिंह का देहांत हो गया और अजित सिंह को इसी साल लोकदल का अध्‍यक्ष बनाया गया। बदलते राजनीतिक घटनाक्रम में अजित सिंह 1988 में जनता पार्टी के अध्‍यक्ष घोषित किए गए। अगले साल 1989 में उन्‍होंने बागपत लोकसभा क्षेत्र से चुनाव में जीत दर्ज की। फिर तो बागपत से लोकसभा चुनावों में जीत का सिलसिला चल पड़ा। वे इस सीट पर एक चुनाव को छोड़कर लगातार 2009 तक बागपत से जीतते रहे। ये 1998 का लोकसभा चुनाव था जिसमें अजित सिंह पहली बार इस सीट पर बीजेपी के नेता सोमपाल शास्त्री से चुनाव हार गए थे।

इसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) बनाई और 1999 में चुनाव जीत लिया। इसके बाद से वे लगातार 2009 तक इस सीट पर जीतते रहे। वर्ष 2014 के चुनाव में उन्हें फिर बीजेपी के सत्यपाल सिंह से मात मिली थी।

यहाँ जिक्र सत्यपाल का आया है तो दोनों से जुड़ा एक मजेदार वाकया भी है। दरअसल, सत्यपाल सिंह एक आईपीएस अधिकारी रहे हैं। वर्ष 1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में चौधरी अजित सिंह पहली बार केंद्रीय कैबिनेट उद्योग मंत्री बने। एक मंत्री के रूप में उन्हें अपने लिए पीएस (पर्सनल सेक्रेटरी) की तलाश थी। इसके लिए उन्होंने एक आईपीएस अधिकारी सत्यपाल सिंह को चुना। सत्यपाल सिंह मूलतः बागपत के रहने वाले थे। अजित सिंह के खासमखास लोगों ने उस समय उन्हें चेताया था कि इस पद पर उत्तरप्रदेश के और खासकर बागपत के किसी अधिकारी को किसी भी सूरत में न बिठाया जाये। इसकी वजह यह है कि एक ही क्षेत्र से होने से उस पद पर बैठे व्यक्ति में भी राजनीतिक लालसा पैदा हो जाती है क्योंकि आने-जाने वालों की उससे भी जान-पहचान होती है। ऐसे में वह मंत्री के समानांतर राजनीति करने लग जाता है। अजित सिंह अमेरिका से आये थे और उन्हें इन चालबाजियों पर न तो विश्वास था और न परवाह। अतः उन्होंने यह सलाह दरकिनार कर दी।

आखिर वही हुआ, वर्ष 2014 में उन्हीं सत्यपाल सिंह ने बागपत लोकसभा क्षेत्र से अजित सिंह को पटखनी दे दी!


खैर, जब जिक्र अजित सिंह के उद्योग मंत्री बनने का आया है तो ये बताना काबिलेगौर है कि छोटे चौधरी को अपनी काबिलियत दिखाने का खूबसूरत मौका हाथ लगा। वे उच्च शिक्षित तो थे ही विदेश से कम्प्यूटर की दुनिया में पारंगत होकर भी लौटे थे। भारत के उद्योगों को क्या रोडमैप देना चाहिए, इसकी भी उनको पूरी समझ थी। अभी तक उद्योगों में लाइसेंसी राज चल रहा था और कुछ ही घरानों का उद्योग धंधों पर कब्जा था। आम आदमी या छोटा व्यवसायी उद्योग लगाना तो दूर, लगाने की सोच भी नहीं सकता था।

यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि उनके पिता बड़े चौधरी यानी चौधरी चरण सिंह का जोर कुटीर उद्योगों पर रहा था। चौधरी चरण सिंह के विचार इस मामले में महात्मा गांधी के विचारों से मेल खाते थे। चरण सिंह का फोकस गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने पर था। उनका मानना था कि गाँव के आत्मनिर्भर होने से गाँव में खुशहाली आयेगी और शहरों में पलायन रुकेगा। एक बात और भी है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भारत में खेती का सोवियतकरण करने के इच्छुक थे यानी यहाँ मौजूद छोटे-छोटे खेतों को बड़े विशाल खेतों में बदलकर उन पर सामूहिक खेती करने के पक्षधर थे। चौधरी चरण सिंह ने इस विचार और योजना का हर स्तर पर विरोध किया। उनका कहना था कि तत्कालीन सोवियत संघ में आबादी के अनुपात में जमीन बहुत ज्यादा है जबकि भारत में स्थिति इसके उल्ट है, यहाँ आबादी बहुत ज्यादा है और जमीन बेहद कम है। इतना होने के बावजूद सोवियत संघ तुलनात्मक रूप से भारत जितनी कृषि उपज पैदा नहीं कर पाता। चौधरी चरण सिंह के विरोध के कारण ही जवाहर लाल नेहरू को खेती का सोवियत मॉडल त्यागना पड़ा।

लेकिन चौधरी चरण सिंह और चौधरी अजित सिंह के समय में खेती और किसान दोनों में जमीन-आसमान का फर्क आ चुका था। जहाँ चौधरी चरण सिंह के समय एक औसत किसान की आय सरकारी दफ्तर के सुपरिंटेंडेंट की तनख्वाह के बराबर होती थी, वहीं चौधरी अजित सिंह के मंत्री पद संभालने के समय यह आय घटकर सरकारी क्लर्क की तनख्वाह के बराबर हो चुकी थी (इस समय तो यह क्लर्क की तनख्वाह से भी बहुत कम हो चुकी है)।

अतः चौधरी अजित सिंह 1989 में उद्योग मंत्री बनते ही अपना रोडमैप तैयार कर चुके थे। उन्हें किसान और भारत की अर्थव्यवस्था दोनों की फिक्र थी। किसानों की जोतें दिन-प्रतिदिन छोटी होती जा रही थीं, उधर उद्योगों का भी बुरा हाल था। अब तक की सरकारों की तरफ से नए उद्योग-धंधे लगाने का कोई वातावरण ही तैयार नहीं किया गया था। देश की अर्थव्यवस्था बेहद बुरे दौर से गुजर रही थी बेहद!

छोटे चौधरी देश की अर्थव्यवस्था को गति देने में जुट गए। उन्होंने अपने खासमखास इंडस्ट्री सेक्रेटरी अमरनाथ वर्मा व अन्य उद्योग विशेषज्ञों के साथ मिलकर नई औद्योगिक नीति तैयार की। चौधरी अजित सिंह का संयुक्त राज्य अमेरिका में दो दशक रहकर काम करने का अनुभव इसमें काम आया।


आखिरकार, अप्रैल 1990 में लोकसभा में अजित सिंह ने नई औद्योगिक नीति रखी। इस औद्योगिक नीति में खतरनाक केमिकल और विस्फोटकों से जुड़े 8 उद्योगों को छोड़कर बाकी सभी तरह के उद्योग धंधे खोलने के लिए लंबी-चौड़ी कानूनी और विधायी अड़चन को एक झटके में खत्म कर देने की सिफारिश की गई थी। अजित सिंह ने नई औद्योगिक नीति रख तो दी मगर वे देश के राजनीतिक माहौल और नेताओं के घाघ मंसूबों को पहचान नहीं पाए। प्रधानमंत्री वीपी सिंह और अरुण नेहरू जैसे प्रगतिशील विचारधारा वाले कुछ ही नेताओं ने नई औद्योगिक नीति को सराहा मगर नई सरकार में समाजवादी नेताओं का वर्चस्व था। अतः संसद में हंगामा शुरू हो गया। खास बात यह रही कि हंगामा विपक्ष ने नहीं, बल्कि उनकी अपनी ही पार्टी जनता दल और सहयोगी दलों ने किया। अपने ही लोगों को विरोध करता देख सरकार ने अजित सिंह की इस औद्योगिक नीति को ठंडे बस्ते में डाल दिया और ये क्रांतिकारी औद्योगिक नीति फाइलों में कैद हो गई।

अब अपना फोकस अजित सिंह से थोड़ा नरसिंह राव पर लाते हैं। चौधरी अजित सिंह की नई औद्योगिक नीति का सबसे ज्यादा विरोध चंद्रशेखर ने किया था। जल्द ही विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार का पतन हो गया था। चंद्रशेखर के नेतृत्व में नई सरकार बनी। लेकिन देश की आर्थिक स्थिति इतनी नाजुक हो चुकी कि देश को चलाने के लिए भारत सरकार को अपना सोना तक गिरवी रखना पड़ा। इन सभी कारणों से सरकार की बेहद किरकिरी हुई और राजनीतिक उठापटक के कारण ये सरकार भी जल्द ही गिर गई।

इसके चलते 1991 में देश में आम चुनाव हुए और कांग्रेस ने पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व में सरकार बनाई। नरसिम्हा राव ने अमरनाथ वर्मा को अपना प्रधान सचिव बनाया। नई सरकार को देश की अर्थव्यवस्था को गति देनी थी। इस सरकार में मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे जो खुद भी अर्थशास्त्री थे। बताया जाता है कि अमरनाथ वर्मा ने प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को अजित सिंह द्वारा तैयार की गई औद्योगिक नीति के ड्राफ्ट के बारे में विस्तृत जानकारी दी। जब प्रधानमंत्री और वित्त मंत्री ने अजित सिंह द्वारा तैयार की गई औद्योगिक नीति के ड्राफ्ट को पूरा पढा तो दोनों की बाँछे खिल उठीं। वे देश में बिल्कुल ऐसी ही औद्योगिक नीति तो लागू करना चाहते थे। ऐसे में जुलाई 1991 को चौधरी अजित सिंह द्वारा तैयार यही औद्योगिक नीति लोकसभा के पटल पर रख दी गई। कुछ कांग्रेसियों और सारे विपक्ष ने इस औद्योगिक नीति के खिलाफ हंगामा किया लेकिन नरसिम्हा राव टस से मस नहीं हुए, डटे रहे और इस औद्योगिक नीति को संसद में मंजूरी दिलवाने में सफल हो गए।


फिर तो इतिहास ही बन गया। भारत उदारीकरण और भूमंडलीकरण के दौर में प्रवेश कर गया। लेकिन इस सारी योजना को कागज़ों पर उतारने वाले शिल्पी चौधरी अजित सिंह इस प्रकरण में कहीं नहीं थे। उनकी मेहनत का सारा श्रेय पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह ले उड़े। छोटे चौधरी की देश को यह सबसे बड़ी देन कही जा सकती है। देश के उद्योगपतियों को हमेशा उनका ऋणी रहना चाहिए।

खैर, अल्पमत सरकार चला रहे नरसिम्हा राव सरकार के खिलाफ 1993 में अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। इस अविश्वास प्रस्ताव में अजित सिंह ने नरसिम्हा राव का साथ नहीं दिया, मगर उनकी पार्टी में फूट पड़ गई। अजित सिंह की पार्टी के सांसद रामलखन यादव, पार्टी के 7 सांसदों के साथ नरसिम्हा राव के साथ चले गए और सरकार गिरने से बच गई। कुछ समय बाद हालातों से समझौता करके अजित सिंह ने भी अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में कर दिया और खाद्य मंत्री का पद प्राप्त कर लिया। अब उनका सारा ध्यान उद्योग के साथ-साथ कृषि और कृषकों पर लग गया। उन्होंने प्रयास किया कि उत्तरप्रदेश की गन्ना बेल्ट में समुचित मात्रा में चीनी मिल लगें ताकि किसानों को गन्ना बेचने में कोई दिक्कत न हो और उन्हें गन्ने का तुरंत और सबसे ज्यादा मूल्य मिले। इस सोच के दूरगामी परिणाम सामने आये आज उत्तर प्रदेश खासकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में जगह-जगह चीनी मिलें स्थापित हैं।

राजनीतिक हालातों को देखा जाये तो इस समय चौधरी अजित सिंह को दिन-प्रतिदिन नुकसान होता जा रहा था। जहाँ चौधरी चरण सिंह अपने समय में उत्तरप्रदेश और बिहार में मुस्लिमों समेत सभी कृषक जातियों के एकछत्र नेता थे। अजित सिंह इस विरासत को सहेज नहीं पा रहे थे। मीडिया और विरोधियों ने अजित सिंह की छवि सम्पूर्ण कृषक जातियों की बजाए एक जाट नेता के रूप में गढ़नी शुरू कर दी। इससे उनके वोट बैंक में बहुत सेंध लगी, खासकर यादव वोट, जो चौधरी चरण सिंह का सबसे बड़ा जनाधार था, अजित सिंह से खिसक गया। फिर भी अजित सिंह का जलवा काफी हद तक कायम था।

लेकिन 1998 में अजित सिंह को जोरदार झटका लगा, बेहद जोरदार! वर्ष 1989 के बाद पहली बार बागपत लोकसभा क्षेत्र से छोटे चौधरी, भाजपा के सोमपाल शास्त्री से चुनाव हार गए। ये हार केवल अजित सिंह की हार नहीं थी, ये हार एक विचारधारा की हार थी। खैर 13 महीने बाद ही देश में मध्यावधि चुनाव हो गए जिसमें अजित सिंह फिर से बागपत का रण जीत गए। अटल बिहारी वाजपेयी फिर से प्रधानमंत्री बने। वर्ष 2001 में अजित सिंह ने एनडीए को समर्थन दिया और केंद्रीय कृषि मंत्री बने। इसी दौरान उनसे मेरी पहली मुलाकात हुई। इस कार्यकाल में उनका उल्लेखनीय कार्य खाद्यान्न को स्टोर करने के लिए निजी क्षेत्र में गोदामों के निर्माण में सब्सिडी देना रही। फलस्वरूप पूरे देश में गोदामों का खूब निर्माण हुआ और खाद्यान्न की बर्बादी काफी हद तक रुकी। अजित सिंह इस सरकार में भी लंबे नहीं चले और 2003 में सरकार से अलग हो गए।

2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में अल्पमत वाली कांग्रेस सत्तारूढ़ हो गई। इस दौरान कांग्रेस ने अजित सिंह को साथ लेने की भरसक कोशिश की लेकिन बात सिरे नहीं चढ़ पाई।

अगले आम चुनाव 2009 में अजित सिंह भाजपा के साथ मिलकर लड़े और 5 सीटें जीतने में कामयाब हो गए लेकिन फिर से कांग्रेस की सरकार बन गई। कांग्रेस के इस कार्यकाल में 2011 में जाकर अजित सिंह का दिल पसीजा और वे उड्डयन मंत्री के रूप में सरकार में शामिल हो गए।

2014 का चुनाव रालोद या अजित सिंह के लिए ही नहीं बल्कि पूरे देश के लिए एक टर्निंग प्वाइंट था। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूरे देश में जातीय, धार्मिक और सामाजिक धुर्वीकरण अपने चरम पर पहुँचा दिया। इसके लपेटे में अजित सिंह भी आ गए। वे इस बार फिर बागपत लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़े लेकिन पूर्व पुलिस अधिकारी रहे सत्यपाल सिंह ने उनको हरा दिया ये 1998 के बाद उनकी दूसरी हार थी।

अगले चुनाव 2019 में वे बागपत की बजाए मुजफ्फरनगर से चुनाव लड़े मगर उनको फिर हार का मुँह देखना पड़ा। मजेदार बात यह है कि वर्ष 1971 के लोकसभा चुनावों में उनके पिता चरण सिंह भी मुजफ्फरनगर से हार गए थे (कमाल की बात यह है कि ये चौधरी चरण सिंह की राजनीतिक जीवन में इकलौती हार थी)।

इस समय अजित सिंह की उम्र भी 80 बरस की हो चुकी थी, उनकी पार्टी का किला दरक चुका था। लेकिन नवम्बर 2020 में भारत में खासकर उत्तर भारत के किसान नए कृषि कानूनों के खिलाफ भड़क उठे। दिल्ली में प्रदर्शन के लिए जा रहे लाखों किसानों को दिल्ली की सभी सीमाओं पर रोक दिया गया। अजित सिंह इससे पहले 2018 में उत्तर प्रदेश के किसान आंदोलन को अपना समर्थन दे चुके थे। इस बार भी उन्होंने अपना समर्थन किसान आंदोलन को दिया। आंदोलन में 28 जनवरी 2021 को ऐसा मोड़ आया कि दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर बैठे किसान नेता राकेश टिकैत को बलपूर्वक उठाने के लिए उत्तरप्रदेश पुलिस पहुँच गई। रात के समय वहाँ मुट्ठीभर किसान ही थे। उस रात अगर पुलिस अपने मंसूबों में कामयाब हो जाती तो पूरे किसान आंदोलन के खत्म होने का खतरा था। हालांकि राकेश टिकैत व्यक्तिगत रूप से अजित सिंह के राजनीतिक विरोधी हो चुके थे। लेकिन अजित सिंह ने व्यक्तिगत लाभ या हानि को तव्वजो देने की बजाए किसानों की मदद करने का तुरंत निर्णय लिया और उत्तरप्रदेश के शासन-प्रशासन को खुली चेतावनी दे डाली कि धरनारत किसानों पर किसी भी प्रकार का बल प्रयोग न किया जाये अगर ऐसा हुआ तो राष्ट्रीय लोकदल इसके खिलाफ सड़कों पर उतरेगा। अगली ही सुबह अजित सिंह ने किसानों का हौसला बनाये रखने के लिए अपने पुत्र जयंत चौधरी को आंदोलन स्थल गाजीपुर बॉर्डर पर भेजा। इससे सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा और किसानों पर जोर-जुल्म-ज्यादती नहीं हो पाई। अब किसान आंदोलन पहले से ज्यादा ताकतवर होकर उभरा। इस मजबूत कदम से अजित सिंह को आशातीत राजनीतिक सफलता प्राप्त हुई और वे दोबारा देश की राजनीतिक चर्चाओं में आ गए।

लेकिन इसी दौरान चौधरी अजित सिंह देश में फैले कोरोना वायरस के चपेटे में आ गए, 20 अप्रैल को पुष्टि हुई कि वे कोरोना पॉजिटिव हैं। तबीयत ज्यादा खराब होने पर उन्हें गुड़गांव के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में भर्ती कराया गया। डॉक्टरों ने उन्हें बचाने की भरसक कोशिशें कीं लेकिन उनको बचाया नहीं जा सका।

6 मई 2021 को भारतीय उद्योग जगत के लिए नई राह प्रशस्त करने वाले गुमनाम हीरो और किसानों के मसीहा चौधरी अजित सिंह का निधन हो गया।


छोटे चौधरी के समग्र राजनीतिक कैरियर और कार्यों का मूल्यांकन किया जाये तो आँकड़ों के हिसाब से वे चार बार केंद्रीय मंत्री, 7 बार लोकसभा सांसद व एक बार राज्यसभा सांसद बने। लेकिन इन आँकड़ों से उनकी विचारधारा और राजनीतिक सूझबूझ का पता नहीं चल सकता।

मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि चौधरी अजित सिंह अपने समय के सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे राजनीतिज्ञों में से एक थे। आईआईटी खड़गपुर से बीटेक और अमेरिका में कम्प्यूटर साइंस में एमएस करके अमेरिका में ही 15 साल तक आईबीएम में नौकरी करने के बाद कोई व्यक्ति राजनीति में आये तो प्रथम दृष्टया यह लगता है कि किसान उसकी प्राथमिकता में नहीं हो सकते। लेकिन इसके बावजूद अजित सिंह अपनी जड़ों से जुड़े रहे और मरते दम तक उनका दिल किसानों के लिए धड़कता रहा। किसानों के लिए वो जात-पात-धर्म-स्थान आदि से ऊपर उठकर अपनी जी-जान लड़ा देते थे। जीवन की अंतिम वेला में उन्होंने जिस तरह कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे आंदोलन को संजीवनी दी वह उनके अलावा किसी और नेता के वश की बात नहीं थी।

एक बार फिर कहना पड़ेगा कि कृषकों के लिए तो उन्होंने अपना जीवन लगाया ही भारतीय उद्योगों और उद्योगपतियों के लिए भी उन्होंने नई औद्योगिक क्रांति की नींव रखी। अगर पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह को भारत का उद्योग जगत अपना प्रणेता मानता है तो उसके मूल में अजित सिंह द्वारा तैयार किया गया औद्योगिक नीति का ड्राफ्ट ही है। ये उनके उत्तराधिकारियों खासकर उनके पुत्र जयंत चौधरी पर निर्भर करता है कि वे इस तथ्य को किस प्रकार पब्लिक डोमेन में लेकर आते हैं क्योंकि राजनीतिक परिस्थितियां समय के साथ बदलती चली जाती हैं। चौधरी चरण सिंह के सामने राजनीतिक चुनौतियां अलग थीं, अजित सिंह के सामने अलग और इसी तरह जयंत चौधरी के सामने भी ये परिस्थितियां अलग ही होंगी। उन्हें पारम्परिक राजनीति से अलग सोचना होगा तभी उनकी राजनीतिक प्रासंगिकता बनी रहेगी।

चौधरी अजित सिंह के निधन पर कहा जा सकता है कि देश ने एक अतिशिक्षित, किसानी और उद्योगों को समान रूप से विकसित करने के योजनाकार नेता को खो दिया है।



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