तृप्ति
तृप्ति
भोर का उजाला अब धीरे-धीरे आसमान से नीचे उतरने लगा था। दिसम्बर माह की उस रात ठंड कुछ ज्यादा ही थी।।।पिछले कुछ दिनों से चल रहे शीतलहर की वजह से सर्दी विकराल रूप धारण किये हुए थी और भोर के समय सर्दी मानो अपने पूरे यौवन पर होती थी।
शास्त्री जी रात भर ठंड की वजह से सो नहीं पाए थे, ऐसी ठंड से मुकाबला करने के लिए घर में एकमात्र कम्बल था जो पिछले बरस किसी जजमान ने उन्हें भेंट की थी। दो इंसान उसे ओढ़ कर सो सकते थे लेकिन फिलहाल उनकी पत्नी सुनैना अपने तीन बच्चों के साथ जैसे-तैसे उसे ओढ़कर सर्दी की रातें गुजारती। शास्त्री जी खुद एक चादर में पैरों को छाती से सटाये सर्दियों की इन कठिन रातों के जल्दी गुजर जाने की प्रार्थना अपने इष्टदेव से किया करते।
उस रात वे उस हाड़ कँपाने वाली ठंड से कुछ ज्यादा ही व्याकुल हो गए, सोचा कि कहीं से कुछ जलाकर हाथ-पैर सेक लू तो प्राण बचे, इस उद्द्येश्य से बिस्तर से उठ बैठे, परन्तु माचिस कहाँ रखी हुई थी ये उन्हें पता न था, पत्नी को उठा कर पूछने का विचार मन में आया, परन्तु देखा तो वह बच्चों के साथ बुरी तरह लिपटी हुई सोई पड़ी थी सो उन्होंने यह विचार त्याग दिया, आसमान की ओर शिकायती नज़रों से देखा और चुपचाप मंदिर की ओर विदा हो गए।
शास्त्री जी का पूरा नाम मदन मोहन शास्त्री था, राधे मोहन शास्त्री के इकलौते पुत्र। पिता प्रकांड पंडित थे, आस-पास के दस गांव में उनके पिता के पांडित्य का डंका बजता था, देवी सरस्वती ने उनपर अपनी असीम कृपा की थी, इसी वजह से शायद लक्ष्मी उनसे हमेश दूर-दूर ही रही, परिवार की छोटी-छोटी जरूरतों को पूरा करने में वे अपने आपको असमर्थ पाते थे। ब्राह्मण कुल की परम्परा के अनुरूप न तो उन्हें इस बात का कभी खेद हुआ न ही उनकी पत्नी को। पुत्र को बाल्यकाल से ही उन्होंने अपने सान्निध्य में शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया था, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह से लेकर अंतिम संस्कार तक के सारे कर्मकांड पुत्र ने पिता के सान्निध्य में सहज ही प्राप्त कर लिया था, पिता के पास वही एकमात्र संचित निधि थी जिसे उन्होंने अपने जीवनकाल में पूर्ण रूप से पुत्र को समर्पित कर दिया था।
पंडित जी के जीवनकाल के उत्तरार्ध में गांव में और भी कई युवा पंडित उनके कार्यक्षेत्र में घुसपैठ करने लगे थे और इस व्यवसाय में अब उनका एकाधिकार समाप्त सा होता जा रहा था। इससे जीवन-यापन की कठिनाई और भी दुरूह होती जा रही थी। ऐसे में पंडित जी अपने पुत्र के भविष्य को लेकर बहुत चिंतित रहते थे। पुत्र अब युवा हो चला था और पिता की चिंता को समझता था परन्तु कोई उपाय उसे भी नहीं सूझता था।
ऐसी ही दयनीय अवस्था में पुत्र को छोड़कर एक दिन पिता स्वर्ग सिधार गए। भौतिक संपत्ति के नाम पर उनके पास जमीन का वह एकमात्र टुकड़ा बचा रह गया था, जिसपर उनकी झोंपड़ी खड़ी थी, उसे ही रेहन रखकर शास्त्री जी ने सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप पिता का श्राद्ध कर्म संपन्न किया। पिता की मृत्यु के उपरांत अब माता की मानसिक एवं शारीरिक अवस्था ऐसी नहीं रह गयी थी कि वह गृहस्थी का कार्य सम्हाल सके अतः शास्त्री जी के लिए विवाह करना आवश्यक हो गया था। पिता की ख्याति दूर-दूर तक थी ही, अतः शीघ्र ही एक कुलीन ब्राह्मण कन्या से उनका विवाह हो गया और समय के साथ वह तीन-तीन बालिका के पिता हो गए।
समय पर ब्याज ना चुका पाने की वजह से उन्हें अपना घर छोड़ना पड़ा और उन्होंने गांव के बाहर के मंदिर में विवश हो सपरिवार शरणागत हो गए। वहां पूर्व से एक वृद्ध पुजारी थे जिनकी अवस्था काफी हो चली थी, भगवान की सेवा-सुश्रुषा ठीक से हो नहीं पाती थी अतः उन्होंने नयी व्यवस्था को सहज ही स्वीकार कर लिया।
शास्त्री जी को रहने का ठौर तो मिल गया परन्तु दरिद्रता से पीछा न छूटा। संकोची स्वभाव के थे और किसी यजमान से जबरदस्ती कुछ लेना धर्म-विरूद्ध भी समझते थे। ऐसे में गृहस्थी की गाड़ी जैसे-तैसे सरक रही थी।
नित्य-क्रिया से निवृत्त होकर शास्त्री जी भगवान की सेवा कार्य में जुट गए। दोपहर में भोजन का बुलावा आया परन्तु शास्त्री जी भोजन को न आये। पत्नी को चिंता हुई तो ज्येष्ठ पुत्री को पिता की खोज-खबर लेने भेजा। शास्त्री जी मंदिर के बाहर चबूतरे में गुमसुम बैठे हुए थे। बालिका पीछे से आकर उनसे लाड से लिपट गयी, पुत्री के निर्विकार प्रेम से शास्त्री जी का हृदय द्रवित हो आया। उन्होंने उसे गोद में बैठा लिया। फटे चीथड़े पहने हुए बालिका के क्लांत मुख पर हरियाली आ गयी।बोली, "बाबा, भोजन को क्यों नहीं आये" आज माँ ने दाल भी पकाई थी"
"मुझे भूख नहीं, तू खायी?"
"हाँ बाबा, माँ ने आपको बुलाया है"
"अच्छा !! तू चल, मै आता हूँ"।
"ठीक है बाबा" कहती हुई बालिका उनकी गोद से उतरकर उछलती-कूदती घर की ओर चली गयी।
पंडितजी को रोना आ गया, शिकायती दृष्टि से उन्होंने मंदिर की ओर देखा और अपनी मौन वेदना ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दी।और लाचार क़दमों से घर की ओर विदा हुए।
घर आकर शास्त्री जी ने अस्वस्थ होने का बहाना कर खाने से मना कर दिया। पत्नी व्याकुल हो-हो कर पूछती रही, उन्हें ज्वर हो आया, सारी रात पत्नी और पुत्रियां उन्हें तेल मालिश करती रही परन्तु उनकी तबियत बिगड़ती ही चली गयी।
रात्रि के चौथे पहर उन्होंने क्षीण स्वर में अपनी पत्नी से कम्बल ओढ़ा देने को कहा। तृप्त भाव से पत्नी की ओर देखा और अंतिम सांस ली।