Poonam Atrey

Others

4.5  

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संघर्ष एक पिता का

संघर्ष एक पिता का

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हाड़ कँपा देने वाली पूष की रात और वह 9 वर्ष का बालक एक दुकान के शटर के बाहर एक बोरी में ख़ुद को ठंड से बचाने का पूरा प्रयास कर रहा था मगर ठंड थी कि अपना पूरा कहर बरपा रही थी मानो उस नन्ही सी जान की परीक्षा लेने ही आई हो ।


नींद न आने के कारण मन कल्पनाओं में खो गया अभी कुछ महीनों पूर्व ही पिताजी का स्वर्गवास हो गया ,परिवार वालो ने मिलकर माँ की शादी उसके अविवाहित चाचा से करा दी ।माँ को शायद पति मिल गया मगर उसे फ़िर पिता का प्यार नसीब न हुआ ।सोचते सोचते कब उसके थकी देह नींद की आग़ोश में गई शायद ठंड को भी पता न चला ।


सुबह कुत्तों के भौंकने से उसकी आँखें खुली ,वह तुरंत अपना बोरिया बिस्तर उठा कर खड़ा हो गया ,नन्हे कंधे और जिम्मेदारी बड़ी थी उसकी अब माँ के साथ साथ चाचा अर्थात सौतेले पिता का भी पेट भरना था उसे ,अपनी अलसाई देह को नजरअंदाज कर वह जुट गया था काम पर ।एक छोटे से होटल में बर्तन धोने का काम मिला था उसे जिसे वह पूर्ण मनोयोग से करता था ।


बर्तन धोते धोते कब वह 9 वर्ष से 14 का हुआ उसे खुद भी भान नही हुआ ,वक़्त बड़ी तेजी से दौड रहा था । मगर सपने आज भी आँखों मे कुलाँचे भरते थे।

उसके घर से कुछ दूरी पर एक शिव मंदिर था जहाँ अक़्सर वह भगवान से कुछ माँगा करता था ।

दूर के रिश्ते के एक बाबा थे जो उसकी थोड़ी बहुत मदद कर दिया करते थे ।आज वह मन्दिर गया तो बाबा वही मिल गए । उसने बड़ी श्रद्धा से बाबा के चरण स्पर्श किये ,बाबा गदगद हो गए और उसे ढेर सारा प्रेम आशीर्वाद स्वरूप दिया ।

मगर आज उसने बाबा को अपने मन की बात बताने में तनिक भी संकोच नही किया ।उसने बड़ी विनय से बाबा से कहा कि "बाबा क्या आप मेरी थोड़ी मदद करेंगे?"

"हाँ बोलो बेटा कितने पैसे चाहिए तुम्हे ।"

"बाबा बस आप यहां मन्दिर के सामने थोड़ी जगह दिलवा दो ताकि मैं एक चाय की छोटी से दुकान यहां लगा सकूँ ।बस एक तख़त मेरे पास है घर पर बाक़ी सामान का भी मैं इंतज़ाम कर लूँगा ।आप बस जगह दिलवा दो !"

"ठीक है मैं बात करता हूँ" कहकर बाबा मंदिर के ट्रष्टी के पास गए तो वह खुशी खुशी जगह देने के तैयार हो गए उस बालक के मृदुल स्वभाव से वह प्रभावित थे ।

आज उसकी उस छोटी सी दुकान का बड़ा सपना पूरा हुआ वह पूरे मनोयोग से अपनी दुकान सजाने में लग गया ।

कुछ ही दिनों में दुकान चल निकली ।वह बहुत खुश था ।पूरे 2 वर्ष हो गए उसे ,अब उसके मन मे सपने फिर से मचलने लगे ,वह जुगत में लग गया कि अब अपने काम को कैसे विस्तार दिया जाए ।

इसी सपने को देखते 2 वर्ष और बीत गए ,मगर ऊसर अपने सपनो को पूरा करने का कोई रास्ता नही मिल पाया ।आज वह इक्कीस वर्ष का हो गया समय बड़ी तेजी से बीता जा रहा था ।आज उसके लिए एक रिश्ता आया पास ही के गाँव से ,लड़की पाँचवी पास थी ,वह तीसरी कक्षा ही बड़ी मुश्किल से कर पाया था जिम्मेदारियों के चलते अपनी शिक्षा से भी समझौता कर लिया था उसने ।

और कुछ दिनों बाद बड़ी सादगी से उसका विवाह संपन्न हुआ ।अब उसकी जिम्मेदारी और बढ़ गई ।मगर उसकी जीवन संगिनी बड़ी सुगढ़ थी ।उसने 16 वर्ष की नाज़ुक उम्र में ही घर की सभी जिम्मेदारी को बड़ी कुशलता से सम्भाल लिया ,और थोड़ी कमाई में ही कुशलता से घर चलाने लगी ।

आज दुकान में रोज की अपेक्षा कुछ अधिक आमदनी हुई और अब ये सिलसिला चल निकला । उसे लगा अब वह आसानी से अपने काम को बढ़ा सकेगा।

उसने घर की खाली पड़ी ज़मीन पर अपनी दुकान जमाई ,और दुकान का नाम रखा " शर्मा मिष्ठान भंडार "आसपास कोई और दुकान न होने के कारण अच्छी कमाई होने लगी ।अब उसने मदद के लिए एक नौकर भी रख लिया ।उसकी पत्नी भी काम मे हाथ बंटाने लगी थी ।छोटी सी दुकान अच्छे खासे व्यवसाय में परिवर्तित हो गई ।दूर दूर से लोग मिठाइयों के ऑर्डर देने लगे । अब लोग उसे छोटू नही शर्मा जी के नाम से जानने लगे ।अब उसका परिवार भी बड़ा हो गया था ।

जो रिश्तेदार कभी पता नही पूछते थे वे भी रिश्तेदारी निभाने वक़्त वक्त पर आने लगे ।जीवन बीता जा रहा था मगर उसके संघर्षो की धूप कम नही हुई या शायद वह थकना ही नही चाहता था ।जब बच्चे कहते पापा अब आप आराम करो काम करने के लिए हम सब हैं ना ।मगर वह हँसकर टाल देता कि जब तक शरीर चल रहा है तब तक करूँगा जब शरीर काम करना बंद कर देगा तब देखूँगा ।

अत्यधिक श्रम के चलते वह कई रोगों से ग्रस्त हो गया मगर वह शायद किसी और ही मिट्टी का बना था जो लगातार अपने हौसलों को और मजबूत कर लेता था। एक दिन हृदयघात से वह थोड़ा कमज़ोर पड़ गया मगर हौसला आज भी अडिग था ।स्वास्थ्य लाभ ले पुनः संघर्षो की राह पर चल पड़ा ।बेटे बेटियों सबके विवाह कर थोड़ा निश्चिंत हुआ मगर रुका नही ।

अब बच्चो के बच्चों के लिए मेहनत करने लगा ।

अचानक एक दुर्घटना ने उसका छोटा लाडला पुत्र छीन लिया मगर इसे भी नियति का खेल मानकर वह पोते और पोती के लिए पुनः ख़ुद को तैयार करने लगा कि अब जिम्मेदारी और बढ़ गई ।अंदर ही अंदर एक फ़िक्र थी जो उसे खाये जा रही थी कि मेरे बाद इन बच्चों का क्या होगा ।इसी चिंता में रात दिन वह घुलने लगा ।मगर संघर्षो ने उसे आराम नही दिया ।और एक दिन इसी चिंता के साथ वह दुनिया से विदा हो गया ,ये सच्ची कहानी मेरे पापा की है जिन्होंने अपना पूरा जीवन औरो को समर्पित रखा ।और मुझे गर्व है अपने पापा पर,कि मैं उस इंसान की बेटी हूँ जिसमे अपने बच्चों में अशिक्षित होकर भी उच्च संस्कार भरे । ईश्वर से प्रार्थना करूँगी कि ईश्वर उस महापुरुष को अपने चरणों मे स्थान दे।।



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