Sudha Sharma

Tragedy

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Sudha Sharma

Tragedy

तमाचा

तमाचा

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मालती ने आज जैसे ही घर में प्रवेश किया उसका चेहरा बिल्कुल बदला हुआ था। लगता था उसकी आंखें छलक पड़ेगी। उसकी छोटी बच्ची तीन साल की उसके साथ थी। उसने आते ही रोज की भांति अपना काम शुरू कर दिया। बाल चपलता अनुसार बच्ची ने यहाॅं -वहाॅं घूमना प्रारंभ कर दिया। मालती को भली-भाॅंति पता है मुझे पसंद नहीं कि बच्चा उल्टी सीधी शैतानी करें। एक बार उसे सेंटर टेबल पर बाॅलपेन पड़ा हुआ मिल गया उसने पेन सोफे पर चला दिया। उसने पेन की सारी स्याही सोफे को रंगने में खर्च कर दी। जब मैंने देखा तो गुस्से में अपने बाल नोंचा लिए। मन तो कर रहा था उस बच्ची को थप्पड़ जड़ दूॅं लेकिन उसकी उम्र मुझे आज्ञा नहीं दे रही थी। अतः सारा क्रोध उसकी माॅं पर ही निकला। सोफ़ा तो वैसा ही रहा लेकिन मेरा क्रोध शान्त हो गया। अगले महीने सोफ़ा साफ कराना पड़ा। अच्छे खासे पैसे खर्च करने पड़े सोफ़ा साफ कराने में। उस बच्ची को देखकर फिर मेरे घाव हरे हो गये। मैंने तीव्र आवाज में पूछा -”आज फिर अनुष्का को ले आई?“ लेकिन उसकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो थोड़ा आवाज में चिड़चिड़ापन आ गया। मैंने फिर अपना प्रश्न दोहराया लेकिन फिर वही चुप्पी। मैं उसके पास गई और बड़ी विनम्रता से पूछा -”क्या बात है?” मुझे ऐसा लगा कि वह रो रही है। मैंने उसे हाथ पकड़कर बैठाया और रोने का कारण जानने का प्रयास किया। लेकिन जब आंसुओं की बाढ़ आती है तो आवाज गले में अटक जाती है। आंसू भी बेशर्म जितना रोको उतना ही शोर करते हैं। पता था खाना बनाने में देर हो जायेगी लेकिन आज मेरी छुट्टी थी अतः मैंने कहा -”खाना बाद में बना लेना पहले तसल्ली से बात बता” मैंने प्यार से उसकी कमर पर हाथ रख दिया। अब रूलाई सिसकियों में बदल चुकी थी। शांत हो कर बोली “दीदी सब कुछ  लुट गया है इसके बाप ने एक मुस्लिम औरत से शादी कर ली है। अभी तक मुॅंह से कहता था। मैं सोचती थी कि मुझे डरा रहा है। आटो रिक्शा चलाता है ठीक ठाक कमा लेता है लेकिन घर में पैसे नहीं देता इसीलिए घरों में खाना बनाने का काम दो साल से कर रहीं हूं। डेढ़ साल से रात को घर में भी नहीं आता। बच्ची को अकेले सॅंभालती हूं। पिता हैं नहीं,बच्ची को मां के पास छोड़ कर आती हूं। पहले वो कभी कभी दिन में घर पर आ जाता था लेकिन उसने आज फोन पर बोल दिया -”मेरा तुझसे कोई मतलब नहीं मैंने दूसरी शादी कर ली है।“ मैंने तुरंत ढांढस बंधाते हुए कहा -”तू चिंता मत कर । मैं तेरे साथ हूॅं। बिना तलाक लिए किसी को भी शादी करने का अधिकार नहीं है। इसको अदालत में खींच अक्ल ठिकाने आ जायेगी इसकी।”  

   दीदी केस करा देंगी मैं इतना पैसा कहाॅं से लाऊॅंगी। एक बहन है वो भी घरों में झाड़ू पोंछा करती है। एक भाई है वो भी मजदूरी करता है उसके भी अपने बाल बच्चें हैं। माना आपने पैसा भी लगा दिया लेकिन कचहरी के चक्कर तो मुझे ही काटने पड़ेंगे। छः घरों का काम, अपने घर का काम, बच्ची को भी ठीक से टाइम नहीं दे पाती हूं। जब भी बच्ची से मिलती हूं बस झिड़कती रहती हूं, डांटती रहती हूं। बच्ची मुझसे डरने लगी है। इस बच्ची की किस्मत में न बाप का प्यार है न माॅं का। माॅं -बाप जिंदा होते हुए भी बच्ची लावारिस सी हो गई है। कहकर उसकी आंखें फिर छलक आई। इससे अच्छा तो दीदी जितना समय और पैसा मुकदमे में लगेगा उतने में तो मैं अपनी बच्ची को पाल लूंगी। ये कोर्ट कचहरी भी ऐसे ही हैं। पढ़ने सुनने में सब अच्छा लगता है लेकिन जब इसमें चक्कर काटते हैं तो पूरा दिन बर्बाद हो जाता है। जिंदगी बर्बाद हो जाती हैं। काले कोट वाले केस को ज्यादा से ज्यादा खींचते हैं। 

 “तो फिर तुम क्या करोगी मालती ?” मैंने तुरंत प्रश्न दागा। दीदी ! मैंने दसवीं का फार्म भर दिया है। मैंने नौवीं पास की है। नौवीं पास करते ही चौदह साल की उम्र में मेरी मां ने शादी कर दी थी। अब मैं चौबीस साल की हूॅं। सुना है दसवीं पास करके आंगनवाड़ी में नौकरी मिल जाती है। खाना बनाकर मालती चली गई थी लेकिन अब मेरी आंखों में पानी था और मस्तिष्क में मालती के शब्दों का कोलाहल। मुझे भी अपने पति से लड़ते हुए बारह साल बीत गए थे। अदालती कार्रवाई में जो पैसा खर्च किया है वो मिल जाएगा लेकिन अभी तक तो मेरा ही लग रहा है। हर महीने डेट लग जाती है। अधिकतर डेट पर वो आता ही नहीं है। मेरा ही दिन खराब हो जाता है। कहने को झाड़ू पोंछा, बर्तन और खाना बनाने के लिए मेड लगी हुई है। लेकिन शांति एक पल भी नहीं। आफिस जाती हूॅं तो स्कूल के साथ दोनों बच्चों को क्रैच में छोड़ना पड़ता है । वर्क फ्रॉम होम लेती हूॅं तो आफिस ही चलता रहता है । घर से अधिक खुश बच्चें क्रैच में रहते हैं वहाॅं बच्चों के साथ खेलने को तो मिल जाता है घर में तो मैं बच्चों को चुप ही कराती रहती हूॅं। तनावग्रस्त रहने के कारण मैं भी बच्चों को वो प्यार नहीं दे पाती जिसके वो अधिकारी हैं। मालती और मेरी स्थिति समान ही है। न मैं उसे सजा दिला पा रही है न मैं अपने पति को सजा दिला पा रहीं हूॅं। वास्तविकता तो यह है सजा औरत और उसके बच्चे ही भुगत रहे हैं। वकील पैसे कमा रहे हैं। दो हाथों का काम जब एक हाथ को करना पड़ता है तो शरीर को अत्यधिक कष्ट झेलना पड़ता है। शारीरिक भी और मानसिक भी। यदि एक हाथ ही पर्याप्त होता तो ईश्वर दो हाथ ही क्यों देता ? इस आधुनिकता के भूत ने, लिव-इन रिलेशनशिप ने नैतिक स्त्री पुरुष का जीवन बर्बाद कर दिया है। अनैतिक अय्याशी कर रहें हैं और नैतिक कचहरी के चक्कर काट रहे हैं। कोर्ट केवल अनैतिक व्यक्ति को आर्थिक दंड देता है जो मानसिक कष्ट पीड़ित या पीड़िता को मिलता है उसका कोई उपचार नहीं उसके पास। पहले तो दूसरी शादी सिद्ध करनी मुश्किल। अवैध संबंध से उत्पन्न बच्चे को सिद्ध करने के लिए डी एन ए टेस्ट। 

अन्यथा पुरुष तो यह कह देता है कि मैंने तो सामाजिक प्रतिष्ठा बचाने के लिए बच्चे को अपना नाम दे रखा है, अन्यथा इससे मेरे कोई संबंध नहीं।  हम केवल मित्र हैं। 

और सिद्ध होने के बाद भी बच्चे का पिता की प्रोपर्टी में पूर्ण अधिकार।

आधुनिकता संस्कृति के गाल पर करारा तमाचा है और हम अति आधुनिक होने पर गर्व कर रहें हैं।


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