भटकी राहें
भटकी राहें
आज बहुत वर्षों बाद अपनी सहेली मीनाक्षी के घर मेरा जाना हुआ। हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ाते थे। हम दोनों एक सी ही समस्या से जूझ रहे थे जहाॅं समस्या सामान्य होती है वहाॅं विचारों का आदान-प्रदान भी अधिक होता है । अतः यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि हम दोनों फास्ट फ्रेंड बन गए थे । वह अपने पति से परित्यक्ता थी अतः गृहस्थी का भार अकेले ही उठा रही थी और मेरे पति मेरे साथ थे लेकिन घर की सारी जिम्मेदारी उन्हीं के नाजुक कंधों पर थी क्योंकि ससुर सरकारी नौकरी में थे लेकिन किसी कारणवश वह नौकरी से सस्पेंड कर दिए गए थे । अब वह बेरोजगार थे उनकी तीन बेटियां थी जो की जवान थी । पहले तो मैंने बहुत विरोध किया लेकिन जब परिस्थितियों का अध्ययन किया तो पाया कि यह अनावश्यक अटल समस्या है। सामाजिकता के कारण या नैतिकता के कारण विवाह तो तीनों का करना ही पड़ेगा अतः पति की जिम्मेदारी में हिस्सेदार बन गई । स्वाभाविक रूप से अपने बच्चों की जिम्मेदारी भी मेरे ऊपर आ गई । सही मायने में तो मुझे परिवार का अर्थ समझ में आ गया । परि का अर्थ चारों तरफ और वार मायने दिन अर्थात जो हर दिन अपनों से घिरा रहे वह परिवार होता है जहाॅं सुख में सब मिलकर नृत्य करते हैं और दुख में मिलकर सब अपना हाथ बढ़ा देते हैं । कभी बड़ा भाई छोटे भाई के लिए कभी छोटा भाई बड़े भाई के लिए कभी पिता विवाहित पुत्र के लिए और कभी पुत्र पिता के लिए कभी बहन भाई का सहारा बनकर खड़ी हो जाती है कभी भाई बहन के लिए सहारा बन जाते है और दुख शर्मिंदा होकर सर झुका कर अपना आधा क्रोध दिखाकर भागने के लिए विवश हो जाता है ।
मीनाक्षी के घर जैसे ही गई देखते ही मीनाक्षी के मुख पर खुशियों के कमल खिल गए । इधर-उधर की बातें हुई। चाय नाश्ता हुआ समोसे की प्लेट उठाकर छोटा पोता चलने लगा अभी साढ़े सात साल का ही था तुरंत बहू के चिल्लाने का स्वर कानों में गूंज उठा “प्लेट रखो वहीं आलोक ! रखो तुरंत प्लेट ,आलोक ! प्लेट रखो । कितनी बार समझाया है कि किसी की झूठी प्लेट को हाथ नहीं लगाते ।” सुनकर मैं हतप्रभ रह गई। मुॅंह से अचानक निकल गया “अरे अपनी दादी की ही प्लेट तो उठाई है । दादी दादा की सेवा करना तो बेटे पोतों का कर्तव्य होता है।”
“नहीं आंटी, आप नहीं समझेंगी । इसके अंदर बहुत सी बेड हैबिट्स डेवलप हो रही है। रोकना टोकना तो पड़ेगा ही ।” सुनकर मैं चुप हो गई क्योंकि मीनाक्षी ने धीरे से मेरे हाथ पैर हाथ मार दिया था । वैसे भी बहू की आवाज अपने चरित्र व स्वभाव का स्वयं परिचय दे रही थी । थोड़ी देर बाद पता चला कि मीनाक्षी का बेटा यू एस जा रहा है । दो माह बाद वहाॅं बहू और बच्चे भी चले जाएंगे क्योंकि वहाॅं पढ़ाई का नया सेशन सितंबर में शुरू होता है। इतने समय में बेटा मकान ढूॅंढ लेगा । सुनकर मैं तुरंत चलने को तैयार हो गई लेकिन उसने जबर्दस्ती हाथ पकड़ कर बैठा लिया आखिर इतने दिन में तो आई हो अभी तो मन भर के बातें भी नहीं की। मैं उसके आग्रह को नकार न सकी।
रात के साढ़े दस बजे दिल्ली से फ्लाइट है। अंतरराष्ट्रीय फ्लाइट के लिए चार घंटे पहले एयरपोर्ट पहुॅंचना होता है । बेटे ने 3:30 बजे अपनी कैब बुला ली। सी ऑफ करने के लिए मैं भी गेट तक गई । मीनाक्षी बहुत भावुक हो रही थी क्योंकि बेटे का ग्रीन कार्ड बन गया था । वह पहले भी तीन -तीन साल के लिए दो बार यू एस गया था । अब की बार जल्दी लौटने की आशा नहीं थी । बेटे ने बढ़कर मीनाक्षी के और मेरे पैर छू लिए । मैंने उसे अपने सामने बड़ा होते हुए देखा था और वह मेरे द्वारा पढ़ाया हुआ भी था । बहुत ही संस्कारी, सीधा और बुद्धिमान बच्चा था । मैंने छोटे पोते से कहा कि पापा के पैर छू लो तो उसने बुरा मुॅंह बना कर कहा “गंदे होते हैं पैर गंदे होते हैं मैं टच नहीं करूॅंगा।” सुनकर मेरे दिल पर मुक्का सा लगा । बड़ा पोता भी चुपचाप खड़ा था लेकिन मेरे कहने से उसने अपने पिता के घुटने छू लिये। उसके पापा ने उसे सीने से लगा लिया। बेटे की कार आंखों से ओझल हो जाने तक मीनाक्षी कार को देखती रही । मन भारी था शब्द कुछ अवरुद्ध हो गए थे। बहू दोनों बच्चों को फुटबॉल क्लास के लिए ले गई थी। मीनाक्षी की आंखें मुझसे बार-बार थोड़ी देर और थोड़ी देर और ठहरने की याचना कर रही थी । शायद अपने मन का बोझ हल्का करना चाहती हो मुझसे अपने मन की बातें करके।
बहू के जाते ही समझो ज्वालामुखी फूट पड़ा और न जाने कब से भरा गुबार लावा बनकर बह निकला। ” मेरा जीवन नर्क बन गया दीदी ! बड़ी सोच समझकर बहुत छोटे कस्बे की बहू ली थी। आशा थी कि संस्कारवान होगी क्योंकि गाॅंव और छोटे कस्बे ही बचे थे जहाॅं संस्कार जिंदा होने की आशा की जा सकती थी। लेकिन लगता है गांव या छोटे कस्बे की लड़कियों के सिर पर आधुनिकता का ज्यादा ही भूत सवार है। अपने आप को अधिक सभ्य और मॉडर्न दिखाने के चक्कर में और शहर की लड़कियों को मात देने की प्रतियोगिता में सब मर्यादाएं तोड़ रही है । इससे मैं ही नहीं मेरा बेटा भी बहुत परेशान है । वो अपने मान-सम्मान की रक्षा नहीं कर सकता, हमारे मान-सम्मान की रक्षा क्या करेगा। बच्चों पर अपना कंट्रोल रखती है। मैं बीच में बोलती हूॅं तो बच्चों को बहुत मारती पीटती है, और मुझे सीधे-सीधे झिड़क देती है। प्रेम, दया, ममता का तो नाम भी नहीं। लगता है केवल आत्ममुग्धा है। अहम् कूट-कूटकर भरा है। अपने सामने किसी को कुछ समझती ही नहीं। हमारे संस्कार और परम्पराओं से बिल्कुल अलग है। विदेशी कल्चर से इतना प्रभावित हैं कि बड़े पोते को नये- नये उपन्यास लाकर देती है पढ़ने के लिए। बच्चों को नमस्ते करना नहीं सिखाया। समझ नहीं आता कि मैं पागल हूॅं या वह पागल है। लगता है मैं ही सठिया गई हूॅं। मेरा इस घर में दम घुटता है। मन करता है यहाॅं से कहीं भाग जाऊॅं।
किसी की इज्जत नहीं करती, घर का काम करना अपमान समझती है । पैसे को पानी की तरह बहाती है । दीदी, किसी से संबंध नहीं रखती । ननद से ना हमारे रिश्तेदारों से । मैंने अपने बेटे को एक चुड़ैल के हाथों में सौंप दिया है। कहकर उसकी आंखें भर आईं।
“मीनाक्षी अब ऐसा तो नहीं है। यह तो तुम्हें पहले सोचना चाहिए था। दो दिन में ही आदमी की आदत का पता चल जाता है । छोड़ देती बहू को। यह आधुनिक है तो तू भी आधुनिकता से ही जवाब देती । अब रोने से क्या फायदा ?
तुम्हें पता है न, आजकल शराफत सबसे बड़ा अपराध बन गई है । लोग बेवकूफ समझते हैं संस्कारी और शरीफ आदमी को।”
“हाॅं दी ! आप सही कह रही हो । आज नैतिकता को तो अस्पृश्य के समान छूते ही नहीं । घर के काम को गुलामी समझते हैं। पता नहीं पूरा दिन कैसे कटती है । सुबह के नाश्ते के लिए अलग, खाने के लिए अलग, झाड़ू पोछा बर्तन के लिए सभी के लिए तो मेड लगा रखी है। कपड़ों के लिए आटोमेटिक मशीन है फिर भी थकी- थकी रहती है। मशीन में से कपड़े निकाल कर फैलाती हैं । कपड़ों की तह कभी नहीं करती । सुबह की चाय बेटे के हाथ से बनवाकर पीती है। वैसे तो शाम का खाना मैं ही बनाती हूॅं। जिस दिन शाम का खाना वह बनाती है रसोई ऐसे ही छोड़ देती है उसे भी बेटा ही साफ करता है। यदि उसे समय नहीं मिलता तो मुझसे साफ शब्दों में कह देती है “ मम्मी रसोई साफ कर देना यह शिक्षा के नाम पर क्या हो रहा है दीदी ! समझ में नहीं आ रहा।”
“मीनाक्षी कुछ लड़कियाॅं महिला सशक्तिकरण का अर्थ नहीं समझ रही। सभी लड़कियां ऐसी नहीं। तूने यह कहावत तो सुनी होगी ‘अधजल गगरी छलकत जाए।’ पेड़ जितने फलों से ज्यादा युक्त होता है उसकी डाली उतनी ही झुक जाती है । हमें लड़की लड़का गरीब, अमीर, शहर या गांव देखकर नहीं बल्कि संस्कार देखकर लेना चाहिए । छोटे कस्बे,गाॅंव या शहर से कोई लेना-देना नहीं संस्कार तो माता-पिता से आते हैं। लड़की लड़का हमेशा जान पहचान वाले परिवारों से लेने चाहिए।”
“दीदी, मापने का कोई पैमाना नहीं । आजकल पाॅश कॉलोनी में कोई किसी से मतलब नहीं रखना और ऐसा परिवार तो बिल्कुल नहीं जिसके घर में बच्चे संस्कार हीन हो। आजकल की लड़कियां चाहती हैं लड़के के न भाई हो न बहन हो न माॅं हो ना बाप हो और यदि हो भी तो उनसे कोई मतलब नहीं। और यदि पास रहें तो नौकर बन कर रहें। कंजूसी करने को नहीं कहती लेकिन पैसा बचाना तो चाहिए। पैसे उड़ाने के लिए पूरे चाहिए । रही संस्कार की बात तो पूरे परिवार ने पारिवारिक एकता का और संस्कार का ढोंग किया था। जिस दिन हम देखने गए पूरा परिवार एकत्रित था। दोनों चाचा, चाचियां, दादा दादी। हमारे लौटते समय दोनों छोटे भाईयों ने बड़े भाई के, तीनों बहुओं ने सास के, जेठानी के यथायोग्य पैर छुए तो लगा परिवार संस्कारी है। लेकिन सब दिखावा था दिखावा।”
“मीनाक्षी, तुम अपना अनुभव बता रही हो । मैं भी इस जमाने में हूॅं । मेरी बहू बी टेक पास है जो 25 लाख का पैकेज पाती है लेकिन खाना स्वयं बड़े प्यार से बनाती है । मुझे और मेरे पति को माता-पिता जैसा सम्मान देती है। मैं ही उसकी सहायता करने के लिए हमेशा तैयार रहती हूॅं । मुझे पता है कि वह सारे दिन आफिस करती है । हाॅं लेकिन आज आधुनिकता के नाम पर कुछ लड़कियां गुमराह हो रही है और ऐसी लड़कियों की अधिकता इस समाज में अब बहुत अधिक बढ़ रही है । कहावत है ना कि खरबूजे को देखकर खरबूजा रंग बदलता है। महिलाऐं सामानता के नाम पर पुरुष के अवगुणों को भी अपना रहीं हैं । शराब पीना, पब जाना, सिगरेट पीना अब आधुनिकता के नाम पर मान्य है। घरेलू महिला, अनपढ़ महिला, कामकाजी महिला, ग्रामीण महिला, शहरी महिला सभी पर असर दिखाई दे रहा है । इसी दिशा में सुधार करने की देश में आवश्यकता है। शिक्षा में नैतिकता की अति आवश्यकता है।
मैं यह समझाकर उसे चली आई लेकिन मेरे मन में उथल-पुथल मची हुई थी । हम किधर जा रहे हैं ना सच्चे भारतीय हैं ना विदेशी । इसमें विदेशी संस्कृति को दोष देना तो बिल्कुल बेकार है हम उनसे प्रभावित हैं वह हमसे नहीं । यह तो वही कहावत चरितार्थ हो गई कौवा चला हंस की चाल अपनी चाल भी भूला। भारतीय संस्कार भारतीय संस्कृति बिल्कुल समाप्त हो रही है और विवाह नामक संस्था बिल्कुल टूट रही है आधुनिकता के नाम पर समलैंगिक विवाह और लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता है। पता नहीं हमारा देश किधर जा रहा है । न अरेंज विवाह सफल है न प्रेम विवाह। समाज में कभी संतुलन ही नहीं बनता। कभी बहू परेशान थी आज सास परेशान है। शायद सृष्टि का यही नियम है। सुधार की सदैव आवश्यकता रहती है। वैसे भी जिस वर्ग का शोषण हुआ हो शक्ति मिलने पर वह पगला जाता है। बात सास बहू की नहीं स्त्री के आपसी तालमेल की बात है लेकिन यह बात किसी की समझ में आती ही नहीं और समस्या सुरसा के समान मुॅंह खोले हमेशा खड़ी रहती है। लोग संतान से डरने लगे हैं, बहू से भयभीत हैं। और आजकल दो-दो ढाई लाख कमाने वाले माता-पिता भी एक संतान को ही जन्म दे रहे हैं और बहाने यह की बच्चों के पालन पोषण में बहुत पैसा लगता है कहाॅं से लाएंगे इतने पैसे ? क्या होगा इस देश का? कहाॅं चली गई इसकी संस्कृति? कहाॅं चली गई इसकी सभ्यता? जब मानव अशिक्षित था उसे समझाना आसान था। आज प्रत्येक व्यक्ति अपने को बुद्धिमान समझता है सबके पास अपने तर्क कुतर्क मौजूद हैं। सही कहा है मूर्ख को और अति बुद्धिमान को समझाना बहुत ही मुश्किल है। मूर्ख की समझ में कोई बात नहीं आती और बुद्धिमान अपने अहम् के कारण किसी की बात को समझते हुए भी स्वीकार नहीं करता।