वो पल
वो पल
वो तन्हा थी, कुछ ख़यालों में गुम थी,नैनो में नीर थी,वाणी खामोश थी,पर कर्तव्य पथ पर गतिमान थी, आरोपों की बौछार नित प्रतिदिन थी,पर विचलित होना कहां सीखा था राधिका ने।मधुर जैसा जीवन साथी तो था,पर मां की ममता एक स्त्री में स्वतः उत्पन्न हो जाती है,चाहे उसने संतान को जन्म दिया हो या न दिया हो,वो तो बस प्रेम,करुणा,ममत्व की मूर्ति होती है और न्योछावर करने को तैयार रहती है,प्रेम लूटने को तैयार रहती है,
ऐसा ही था राधिका का जीवन,घर और समाज को समर्पित,पर कुछ चाह न थी,खुद के लिए कोई चाह नही थी,पर दिल के कोने में कही मां शब्द सुनने की इच्छा दबी थी,जो बोलने वाला कोई था नही।
विवाह के भी १२ वर्ष हो चले थे,वो तो थी सेवाभावी,पूरी लगन से जुटी रहती थी वृद्ध और बीमार सास ससुर की सेवा को और शेष समय कुछ निर्धन बच्चो को शिक्षा दे कर गुजार देती या फिर अपनी लेखनी से कुछ सकारात्मक लिखकर,शायद किसी समय किसी का अंतःकरण लेखनी झकझोर दे और टूट जाए हर दर्द ,कष्ट कुरीति के बंधन जो समाज को जकड़े है,एक जागेगा तो धीरे धीरे सभी जागेंगे।
इतना सोचने वाली राधिका पर कुरीति सदा प्रहार करती रहती थी,जब जेठानी उसे बांझ बांझ कह कोसती थी,राधिका का हृदय दर्द से रो उठता था।पर आखिर कब तक,सुनती वो यह सब।जब मधुर छुट्टी में घर आए,तब राधिका ने उन्हें कहा, कि कितने अनाथ है जिनके पास मां बाप का साया नही है,अगर हम उनके मां बाप बन जाए तो,।और अन्य अनाथ बच्चों के लिए भी शरणस्थली बन जाए,माता पिता बन जाए,उन्हे एक नया जीवन देकर,उन्हे शिक्षा देकर।
क्यों न बना ले एक ऐसी अश्रयस्थली जहां,हम उनके संरक्षक बन संस्कारयुक्त शिक्षा देंगे और जीवन बनाएंगे।
मधुर को भी यह प्रस्ताव पसंद आ गया,दोनो ने झुग्गी झोपड़ी के बच्चो को शिक्षा देना प्रारंभ किया और जिनके माता पिता नही थे,उन्हे सम्पूर्ण आश्रय दिया।
आज का पल वो भूल नही सकती थी,आज वो एक नही अनेकों की मां थी,उनका जीवन संवार रही थी,और यही" वो पल" था,जो उसके दिल के किसी कोने को दस्तक दे रहा था न जाने कब से,और आज वह जीवन्त हो चुका था।