मेरा गांव मेरी नजर से
मेरा गांव मेरी नजर से
जैसी अपनी मां सा कोई नहीं
समाया सब संसार माँ के आँचल में
बाद जन्म जहां पर पाया बरखुरदार
स्वर्ग सा वही ,स्वर्ग सा वही।।
इस कहानी का पात्र मैं स्वयं हूं जो 54 वर्षों के अपने (ग्राम)गांव को किस नजरिए से आगे विकसित होते देख रहा है, उसका मेरी नजर से चित्रण है ,जो यादोँ में शेष है।
कहते हैं परिवर्तन ही स्थाई बात है, बाकी सब गौण जहां परिवर्तन नहीं गति नहीं वहां प्रगति भी नहीं। इससे किसी खास व्यक्ति से विशेष नाता नहीं, परिवर्तन कोई ना कोई कारण बनकर आता रहता है । जैसे राम राज्य की पुनः परिकल्पना करना उनके आदर्शों में अपने को ढूंढना ,परिवर्तन ही तो है ,चक्र है।
एक भाप के इंजन ,बिजली के आविष्कार ने विश्व के नक्शे में कितने ही परिवर्तन कर दिए रहन-सहन, खाने-पीने बोलने के तरीके व सोचने के नाजिरिये में ,लेकिन फिर हम वापस अपने जड़ों की ओर अपनी संस्कृति की ओर जाने की इच्छा रखते हैं ,क्योंकि सुविधा तो है सुख कहां से आए?
माफ करना आपको ज्ञान बांटने की मनसा नहीं है, यह सब तो आप जानते हैं जो नहीं जानते उनके लिए अपने नजरिए से अपने गांव के परिवर्तन को दिखलाना है। लगभग 50-53 वर्ष पूर्व का मेरा गांव एक्कड़ कला जो की एक पैमाइश का तरीका या इकाई है ,उसके नाम पर रखा गया होगा, इसी नाम से रेलवे का एक छोटा सा स्टेशन भी है,जिले हरिद्वार में जवालापुर के निकट है। उस समय उत्तर प्रदेश सहारनपुर जिले का हिस्सा था अब उत्तराखंड देवभूमि का हिस्सा है,व चार धामों का प्रवेश द्वार भी, मेरे सौभाग्य है कि इस देव भूमि में मेरा जन्म हुवा, जो पवित्र से भी पवित्र उत्तम से भी अति उत्तम है।
एकड़ कला व एकड़ खुर्द दो गांव के बीच बस एक सड़क का अलगाव है। एकड़ खुर्द मुस्लिम बहुल गाँव है और एक्कड़ कला एक हिंदू बहुल जिसमें अनुसूचित जाति , पिछड़े व सामान्य वर्ग के मिले जुले समाज से लोग मिलजुल कर रहते हैं।
अनेकता में एकता जो किताबों में लिखी देखते हैं वो यहाँ चरितार्थ होती है। अजान व रामधुन की सुमधुर आवाज़ आपको सुनने को हमेशा मिलेगी ,पहले भी थी आज भी है।
उस समय के दौर में (मेरे बचपन के समय) गांव में कच्चे रास्ते पर झाड़ियों, खेत खलियान ,पेड़ पौधों हरियाली चारों ओर, बाग बगीचे भरपूर थे,अब पहले की तुलना में कम हैं । अब मकान दूकान ज्यादा है।
बच्चों का बचपन कच्चे घर ,घरों के बाहर बिछाई गईं चारपाई (खाट) ,जो की हाथों से बनाई गईं बाण (रस्सी) से बनाई गईं होती थी ,बाहर खुल्ले में रहने मैं गुजरता था ,सर्दियों में घर के अंदर जल्दी सो जाना ,लाइट थी नहीं लालटेन या डिबिया के सहारे समय गुजरता गया।
हर घर आंगन कोई ना कोई पशु गाय ,भैंस बैलगाड़ी या बुग्गी होती थी। जिससे सामान व चारा आदि लाया जा सके बैल व भेसैं व बैलों से खेती के सब काम कराए जाते थे ।
घेर (घर से आसपास जगह ) वहां पशुओं को बाँधने या भूसा ,पराली गोस्से ( उपले ) , बटोडा (उपले स्टोर करने का तरीका ) रखने का स्थान रहता था।
संयुक्त परिवार की एक बैठक भी रहती थी ,इसमें परिवार के लोग मेहमान को बैठाते थे, उनकी आव भगत करते थे, मेहमान परिवार का मेहमान होता था ना कि किसी खास रिश्ते का।
यह बात बस 50 वर्षों पूर्व की है आश्चर्य हो सकता है ?
पढ़ाई लिखाई से कोई खास लगाव नहीं होता था, उसे समय बच्चे दूर भागते थे , माहौल भी नहीं होता था।
पढ़ने लिखने के बदले चाहे ज्यादा काम करा लो लेकिन हरप (वर्णमाला) नहीं पढ़नी है।
मेरे माता-पिता भले अपने दैनिक काम में बहुत व्यस्त रहते थे, हमें देखने का समय उनके पास नहीं होता था। लेकिन पढाई से हमारा जी चुराना उन्हें मंजूर नही था। एक बार मैं बिना बताये पुरे दिन परिवारजन के साथ पडोस खेत चला गया , फ़ोन आदि की सुविधा तो थी नहीं , जब सायं को वापस आया मेरी क्लास माता जी के हाथों लगीं ,और जिनके साथ गया था उनको भी सुनना पड़ा।
मेरी तरह सबों का यही हाल था कब खेलते, लड़ते ,नालों में नहाते ,पशुओं को पानी पिलाते ,उनका गोबर उठाते बड़े हो गए पता ही नहीं चला।
खैर पढ़ने की बात हो रही थी तख्ती लकड़ी की पौरों (खोखले सरकंडे ) की कलम जिनको ब्लेड या चाकू से छीलकर स्याही में डुबोकर लिखना होता था, मुझे याद है सर्दियों में मुल्तानी मिट्टी से स्लेट को अच्छे से लिप पोत कर चूल्हे क़ई आंच में सुखाकर तब देती थी मां, और शान से एक दूसरे को दिखाते हम पास के सरकारी स्कूल में लेकर जाते थे, एकमात्र सरकारी स्कूल जो प्राथमिक विद्यालय था “ताहिर” सर का खौफ़ सब में था बड़े ही सख्त टीचर थे, शहतूत की डंडी पास रखते थे।
हमारे माता-पिता को कोई मतलब नहीं था बस बच्चा लायक होना चाहिए ।
इमला ठीक ना लिखने पर व पहाडे याद न होने पर हाथ लाल कर देते थे सर ।
स्कूल में जब टीके लगते थे डर के मारे हम स्कूल नही जाते थे , स्कूल से बुलावा आता था । स्कूल में टीकाकरण होता था हमें बहुत डर लगता था।
अंग्रेजी भाषा का प्राथमिक स्कूल में उस समय कोई नामों निशान नहीं था नीचे बैठने के लिए अपने बोरे ले जाने होते थे बोरे पर बैठकर पढ़ना होता था और आजकल,,,
शौचालय बाहर खेतों में सबको जाना होता था आसपास की फसलों के खेतों में ,शायद यही कारण कि लडकियाँ आती नही होंगी ,अब अहसास होता है इस बात का ,तब समझ नहीं थी ,,,,
छुट्टी होने पर उसका आनंद ही कुछ और है, और आज तक ये कायम है सब को छुट्टी की घंटी पसंद है ,,,,
घर आने पर पता चले कि कोई मेहमान आया है तो समझो कुछ ना कुछ अच्छा खाने को मिलने वाला है या तीज त्यौहार पर भी पूड़े सवाली (गुलगुले ,पूरी ) खाने को मिलते थे ,,,,
त्योहारों को बड़ी सादगी से मनाया जाता था ,अब के समय को देख कर लगता है (हम बहुत पैसा खर्च करते हैं ),,,,,,
होली पसंदीदा त्योहार था गोबर के बडकल्ले की माला ,चोरी से किसी के घर से लड़कियां उपले उठाकर होली में डालना ,बड़ों के ऊपर रंग लगाना जिसको वें बिल्कुल भी बूरा नहीं मानते थे।
नशे का उस समय भी चलन था लेकिन आजकल की अपेक्षा बहुत कम था ,आज फैशन है व सरेआम जगह जगह वाइन शॉप मिल जाती है।
उस समय रेडियो भी कुछ ही लोगों के पास था जहां तक मुझे याद है ,उसमें हम लोग कभी कभार पुराने गीत सुनते थे ।
कुछ बड़े होने पर ज्वालापुर जमना पैलेस में “एक फूल दो माली” फ़िल्म देखी। अब ये हाल बंद कर दिया गया है। अमिताभ बच्चन सब के पसंदीदा होरो थे ,अब भी हैं।
दुकान पर सामान लेना हो तो गेहूं या अनाज घर से लेकर आओ और खाने के बदले से नलकी ,चिप्स खोपा (नारियल), पाप्पे ,खट्टा मीठा ,बर्फ का गोला ले आते थे ।
जो संपन्न थे वें पैसे लेकर सामान लेते थे। अनाज के बदले समान बहुत जल्द हमारे सामने ही चलन से बाहर हो गया 5 पैसे 10 पैसे 25 पैसे से खाने का सामन हम ले लेते थे ।
5,10,20 पैसे लगभग हमारे बचपन के कुछ समय पश्चात ही बड़े होते-होते खत्म हो गए। 50 पैसा 1 रुपये का नया सिक्का चलन में आ गए थे। अब वो बंद हो रहे हैं।
हां याद आया पैसों से हम एक गड्ढा बनाकर जिसको गुच्ची बोलते हैं ,कभी-कभी पैसों से खेलते थे, जो पैसे को दुसरे के बताने पर मार देता था वह सब पैसे उसके हो जाते थे।
लेकिन हम उसको छुप छुप के खेलते थे ,क्योंकि मम्मी पापा को बिल्कुल पसंद नहीं था और गांव में कोई भी बात हमेशा कहीं ना कहीं किसी न किसी रूप में पेरेंट्स तक जरूर पहुंच जाती थी।
बच्चे मिट्टी के खिलौने बनाना कारीगरी स्वयं से सीख जाते थे ,घर परिवार में बनते देख रहे होते थे क्योंकि ज्यादा सामान को घर पर ही ठीक करना या बनाना होता था चारपाई बनाना , छप्पर बांधना ,घरों को सजाना ,मिट्टी से बर्तन बनाना ,कोठी (मिट्टी के स्टोर करने के लिए),कुठली बनाना व अन्य सजावटी सामान आदि आदि।
मेले से बाज़ा ,डमरू खरीदना जलेबी खाना मनपसन्द होता था।
अब पसंद नये जमाने वाली हैं , हजारों सामान आसपास है, नही है तो ऑनलाइन सब मंगा लेते हैं, अच्छा है ।
खाने में मोटे अनाज का ही बोलबाला था उड़द दाल, चने ,चावल ,रोटी गेहूं व चावल की ,घरों में उगी हरी सब्जी बनाई जाती थी।
हर घर चक्की आटे व दालें को पीसने के लिए होती थी,अब मोटर चक्की सब जगह है, काम आसान हो गया माताओं व बहनों के लिए।
खाना बस दो बार सुबह शाम को बनता था ,क्योंकि उस समय माडर्न लाइट नहीं थी। दोपहर में शर्बत शक्कर पानी से बना हुआ या नींबू पानी से, आनन्द।
दिया ,डिबिया , लालटेन में सब काम करने होते थे। अब ये फैशन है, जो ड्राइंग रूम मे रखे जाते हैं, हमारे समय की जरूरत थी।
कच्चे रास्ते में कीचड़ घरों से बहता पानी बेतरतीब पानी का बहना खासकर बरसात मे एक सामान्य बात थी । बरसात का समय सबसे दुष्कर होता था शौच के लिए जाना हो ,कोई बीमार हो बहुत कष्ट था।
हम तीनों भाई बहन दाई(डिलीवरी कराने में माहिर बूढ़ी महिला) के हाथों से ही जन्मे है। डॉक्टर गाँव में नही होते थे, झोला छाप डॉक्टर के सहारे लोग रहते हैं, ज्यादा बीमार होने पर हरिद्वार जाना होता था, आजकल ढेरों मेडिकल स्टोर ,फार्मासिस्ट ,बीएएमएस डॉक्टर हैं।
पानी भरने के लिए हैंड पंप होता था ,एक दो कुएं भी होते थे ,आज भी हैं रविदास मंदिर के पास जो कि अब बंद कर दिया गया है,किसी अनहोनी से बचने के लिए । अब सरकारी पानी की व्यवस्था भी है ,अपने पानी की मोटर से पानी जब चाहे प्रयोग करें।
खाना खाने के बर्तन पीतल के बेल्ला(बड़ी सी कटोरी टाइप ), कटोरी ,गिलास लकड़ी की कड़छी ,कढ़ाई,चम्मच अलुमिनियम के होते थे ,स्टील का कोई नाम नही था ,अब बहुत से सामान के देसी भाषा में नाम याद भी नही आ रहे ।
चाय का रिवाज कम था, लेकिन था ,दूध घरों में खूब होता था। अब परिवार छोटे हैं, पशुओं को कुछ परिवार ही रखते हैं, नई पीढ़ी का उसमें कोई रुझान नहीं है।
आंगन में मथनी से छाछ बिलोना ,मक्खन निकालने का कार्य सामान्य सी बात थी, गाय के बियाने पर सब को खीस(पशु का पहला दूध ) बांटना सामान्य बात थी,अब दुर्लभ है।
कुल मिलाकर श्रम का काम बहुत ज्यादा था।
घर का प्रत्येक वयस्क सुबह ही काम पर निकल जाता था ,माताएं जरूरी काम में व्यस्त रहती थी घरों को मिट्टी व गोबर से लीपना साप्ताहिक काम था । साइकिल पर आगे पीछे बैठकर बच्चों को लाना ले जाना सामान्य सा दैनिक कार्य व दम खम की बात थी,या मजबूरी?
खेलने के नाम पर गुल्ली डंडा ,गेंद से मारामारी ,पीठुग्राम खेलना, कबड्डी रेस लगाना ,कंचे खेलना पेड़ों पर चढ़कर पकड़म पकड़ाई खेलना । अब देख कर लगता है कितना खतरनाक खेल था,पेड़ पर चढ़ कर पकड़म पकड़ाई खेलना।
पहनावे के नाम पर गिने-चुने सादगी भरे कपड़े सब उन्हीं में खुश रहते थे। स्कूल के कपड़े भी बाहर जाने के लिए पहन लिए जाते थे। कुर्ता पजामा ,बुजुर्ग लोग धोती कुर्ता व टोपी ज्यादा पसंद करते थे । नौजवान लोग कमीज व पतलून पहनना पसंद करते थे।
माताएं बहने यदा कदा साड़ियां पहनती थी ,अन्यथा सलवार कमीज या कुर्ता और घाघरे में ही अपना समय व्यतीत करती थी। काम इतने होते थे , सजने सवरने का समय ही कहाँ मिलता था।
सभी ग्रामवासी अपनी आजीविका खेती-बाड़ी या छोटे-मोटे व्यक्तिगत कारोबार से धन अर्जित करते थे।
गिनती के लोग ही सरकारी नौकरी में थे या आर्मी में भर्ती हुआ करते थे।
समय बदला परिस्थितियों ने करवट बदली देश बदला , तस्वीर भी बदली ग्राम भी बदले ,सड़के दुरुस्त हुई ,कच्चे रास्ते पके हुए ,पक्के से सड़क और पक्की हुई । जगह-जगह टाइल्स लगी हैं पानी निकासी के लिए नाले बने ,उनको ढका गया,आना-जाना आरामदायक हो गया । बिजली का आना तय हो गया ,24 घंटे तो नहीं 18 -20 घंटे जरूर लाइट अब आती है ,नहीं तो अपना इन्वर्टर तो है ना।
अब गांव आधुनिक हो चला है हर घर में आधुनिक सुविधाएं मोटरसाइकिल ,कार कुछ घरों में एसी भी आपको लगे मिलेंगे ,दो पहिया वाहन चार पहिया वाहन पानी की मोटर ,इनवर्टर अब सामान्य बात हो चली है। जीवम आरामदायक हो गया है। बस डॉक्टर व मेडिकल स्टोर भी बढ़े हैं?
घर आंगन छोटे हो गए हैं हर घर में एक अपना अलग उनका दरवाजा जरूर लग गया है । प्रवेश से पहले खटखटा कर पूछ कर जाना है। परिवार सीमित होता गया है,ये समय की जरूरत भी थी,जनसंख्या जो देश की नंबर 1 है।
गांव की बहू बेटियां भी अब मुखर हैं। घर के कामों में व बाहर के कामों में अपना हाथ बटाती हैं । वह परिवार की जिम्मेदारियां भी उठा रही है। पर्दा कब का चलन से बाहर है, केवल रस्म अदायगी तक सीमित हो गया है।
घरों में ही शौचालय हैं किचन है आसपास ही खाने-पीने की दुकान जूस वाले मिठाई वाले ठेले वाले सब है ,होने भी चाहिए,रोजगार भी तो मिलता है।
प्राथमिक विद्यालय जो अब माध्यमिक विद्यालय है। सब सुख सुविधाएं विद्यालय में हैं ,कमरे शौचालय ,किचन , बैठने के लिए फर्नीचर , रंग रोगन ,लाइट , पीने का पानी सब। देखकर खुशी मिलती है आज का बच्चा पढ़ेगा तभी तो आगे बढ़ेगा और बच्चा बढ़ेगा तो देश आगे बढ़ेगा।
पंचायत घर जिसमें अंबेडकर जी की मूर्ति लगी है, रविदास मंदिर मुझे ठीक से याद नहीं कि मैं बचपन में कभी अंबेडकर जी को जानता रहा हूंगा। लेकिन जैसे-जैसे बड़ा और आगे बढ़ा । उनके आगे श्रद्धा से हमेशा नमन किया, और गांव के लोगों ने भी, युवाओं ने भी शिक्षित होने के बाद अपने समाज के नेता को ,समाज सुधारक को सर आंखों पर बैठाया। जिसने देश में समाज को नई दिशा दी।
नए व पुराने समय से इतर एक बात जो नहीं बदली ,आपस में जुड़ाव ,लगाव । भले आपस के लड़ाई झगड़े, आपस में रास्ते पानी बच्चों को लेकर कहासुनी हो जाये,परन्तु बात अगर गाँव की है तो सब जन एक हैं।
बच्चें मोबाइल इंटरनेट होने से सूचनाओं से भरपूर हैं। उसके उपयोग अपनी पढ़ाई व कामकाज में भरपूर कर रहे हैं। लड़कियों खूब पढ़ रही हैं अपने पसंद के काम कर रही हैं। जो करना चाहे उनके पेरेंट्स भी सहयोगी बन रहे हैं। लड़के लड़की का भेद बहुत कम हुवा है। अब की जनरेशन इस जीवन को शान व ठाठ बाट से जीना चाहती है। मान्यता व मान्यताओं का रूप बदल गया है। अपने पूजा पाठ सत्संग के तरीके भी बदल रहे हैं।
जाति धर्म ये आज के बच्चों के लिए गौण है, अपना हर तरह से विकास उनका ध्येय है।