Meena Mallavarapu

Others

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Meena Mallavarapu

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रत्नम मैम

रत्नम मैम

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बात 1960के आसपास की है..शिमला..St Thomas school मैं छठी कक्षा की छात्रा !कुछ ऐसी यादें होतीं हैं जो हमारे मानस पटल पर अंकित तो हो ही जाती हैं पर साथ ही साथ निरंतर हमारा जीवन निर्देश भी करती हैं!

 आठ दस साल की उम्र चंचल भी होती है,शरारती भी! मैं भी बाकी विद्यार्थियों की तरह कभी खेल कूद में,कभी drawing painting में, कभी खो खो में ,तो कभी रस्सी टापने में बड़ी खुशी से भाग लेती थी।

पर एक बात जो तब भी थी और आज भी मेरे लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है ,वह है कक्षा में गंभीरता और मन लगा कर अध्यापकों की बात सुनना!यह तो ज़रूर कह सकती हूं कि मैं 'आदर्श विद्यार्थी ' की श्रेणी में आऊं न आऊं, कम से कम अच्छे विद्यार्थियों की श्रेणी में ज़रूर शामिल की जा सकती थी।

  वैसे अपनी एक बहुत बड़ी ख़ामी का इज़हार शायद यहां करना पड़ेगा मुझे...कोई डांटे मुझे यह मुझे मंज़ूर है पर कोई बेवजह मुझे दोषी ठहराए या मुझे गलत समझने की गल्ती कर बैठे तो यह बात तब भी और आज भी मेरी बर्दाश्त के बाहर है!

ख़ैर,क्लास चल रही थी रत्नम मैम की ,जो हमें अंग्रेज़ी पढ़ाती थीं..हम एक बेन्च पर चार लड़कियां

बैठी हुईं थी..क्लास में बहुत तो नहीं पर थोड़ी बहुत आवाज़ें distract कर रहीं थी।अचानक रत्नम मैम ने मुझे संबोधित कर के कहा, ' क्या बात है,ध्यान कहां है तुम्हारा,मीना? मुझे इस तरह की अनुशासनहीनता बिलकुल पसन्द नहीं है!'मेरे मुंह से एक हलकी सी "sorry ma'am" निकली..पर मन उचट गया।

    अगले तीन चार दिन मेरे लिए एक दुःस्वप्न से कम न थे।में ने चुप्पी साध ली..मौन व्रत समझिए!यह एक छोटी सी डांट के संदर्भ में over reaction ही था लेकिन मेरे लिए मैम के शब्दों का असर बेहद दुखी करने वाला था।ढीठ भी थी,किसी के सामने रोई तो नहीं पर मेरे रंग ढंग से ऐसा लग रहा था कि बेचारी बीमार है या किसी समस्या की चपेट में है।

अंग्रेज़ी की क्लास हर दिन होती थी,यानि रत्नम मैम से हर दिन सामना! एक दो दिन उन्होंने शायद देखी अनदेखी कर दी... शायद यह सोचा हो कि एक दो दिन में मूड ठीक हो जाएगा,कोई बड़ी बात नहीं!

 अब मेरी समस्या इतनी जल्दी उनकी समझ में कैसे आती? वैसे अधिकतर बच्चे इतनी सी बात को डांट का नाम भी न देते- न उस पर अपना बहुमूल्य समय और सोच ज़ाया करते!एक दो दिन और देखा मैम ने..एक दो सवाल क्लास में पूछे...जिनका जवाब बड़ी गंभीरता से मैंने उन्हें दिया।अब मेरे चेहरे पर न किसी तरह का भाव..न वह मुस्कान जिसकी वह आदी थीं...देखते ही टीचर को wish करना तो सहज था और हम सभी को अच्छा भी लगता था! अब मैं उनके सामने न जाना चाहती थी।शायद अब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि दाल में कुछ तो काला है!

  मामले की तह तक पहुंचना बनता था!

  रत्नम मैम ने (शायद चौथा दिन था मेरे सत्याग्रह का)head girl के हाथों बुलावा भेजा!

जाकर उन के सामने खड़ी हो गई चुपचाप ... हल्का सा भी कोई भाव मेरे चेहरे पर नहीं!

बैठने को कहा मैम ने पर मैंने " it's okay ma'am" कह कर खड़े रहना ही ठीक समझा।

अब मैम ने बात शुरू की..

  "क्या बात है ,मीना ,तुम्हारी तबीयत तो ठीक है?"

  "yes , Ma'am!'

"दो तीन दिन से देख रही हूँ,तुम चुप चुप सी हो गई हो!कोई समस्या है क्या?'

"no Ma'am,ऐसी कोई बात नहीं!"

"फिर मुंह इतना उतरा हुआ क्यों है?"

ज़रा सा प्रोत्साहन पा के लगा कि सच कह ही दूं..

जब पूछ रही हैं इतने प्यार से मुझे भी उनके इतने सारेसवालों का एक तो सही जवाब देना ही चाहिेए।

"मैम,उस दिन सबके सामने आपने मुझे बिना किसी गल्ती के डांट दिया। अगर मैं सच में क्लास में शरारत कर रही होती तो मैं डांट खाने को तैय्यार रहती।पर आपने पहले ही यह मान लिया कि गल्ती मेरी है। मुझे इसी बात का बहुत बुरा लगा।मैं कैसे आपको यकीन दिलाती कि आप को ग़लतफहमी हुई है..और इसीलिए मुझे चुपचाप रहना ही ठीक लगा।"

रत्नम मैम ने मेरी तरफ़ जिस तरह देखा वह मैं आज तक नहीं भूली! उनकी आँखों में स्नेह ,एक understanding थी जो उनकी बातों ने और भी स्पष्ट कर दी!

"oh my child, I'm so sorry I hurt you!" गले लगाकर बोलीं,

"मुझ से एक बार कहा होता" फिर शायद उनको लगा कि बात बस यहीं ख़त्म कर देनी चाहिए।चलो कोई बात नहीं,अब normal हो जाओ! I do  understand!"बात यहीं ख़त्म पर मेरे लिए उनका यह रवैया,उनकी दरियादिली,उनकी सहिष्णुता मेरे जीवन की सबसे बड़ी,सबसे उत्तम,सबसे महत्वपूर्ण सीख बन गई।और मेरी professional life में इस सीख की बदौलत मुझे अपने विद्यार्थियों से जो प्यार मिला उसेआंकना नामुमकिन है!मैंने ख़ुद को बचपन से ही 'टीचर' के रूप में देखा!और रत्नम मैम की कर्ज़दार हूँ कि उनसे मैंने सीखा कि सहृदयी और संवेदनशील होना कितना आवश्यक है...वह भी एक शिक्षक के लिए,जिस पर बच्चों की शिक्षा का ही नहीं,उनके मानसिक स्थिति और संतुलन पर भी नज़र रखने की ज़िम्मेदारी है। उनके कोमल और सुकुमार दिलों को ठेस पहुँचाकर, अपनी हर बात का ,अपने व्यवहार का उनपर कितना गहरा प्रभाव पढ़ सकता है उससे अनजान बनने का उसे हक नहीं

  मैंने सीखा कि किसी एक विद्यार्थी को कक्षा में खड़ा कर ,उसे डांट कर ,उसे छोटा दिखाकर हम कोई

बड़ा लक्ष्य नहीं साध रहे हैं! सारी कक्षा को कितने ही प्रवचन सुना लो,कितनी चाहो खरीखोटी सुना दो, पर एक से बात करनी हो तो उसे अलग बुला कर,बिठा कर प्यार से समझाओ - sorry कहने से ,माफ़ी कहने से कभी कोई छोटा नहीं हुआ -न शिक्षक,विद्यार्थी।

staff room में जाकर पूरी कहानी सुनाना और शेखी बघारना हमारी परिपक्वता पर सवाल उठाता है।उनकी साझा की हुई बातों का खुलासा करना हमारी अपनी गरिमा पर भारी पड़ सकता है!

रत्नम मैम की मैं सदा आभारी हूँ..इस अनमोल सीख के लिए, कि अगर बच्चों को या बड़ों को पढ़ाने का ज़िम्मा उठाना ही है तो अपने मन को, अपने व्यवहार को भी, निर्मल अपने संवेदनशील बनाना होगा...उनके दिलों को जीत कर दिमाग तक पहुँचना होगा।

   



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