पलटते पासे
पलटते पासे
शिखर और स्मृति आज जीवन के उस कगार पर आ पहुंचे थे जहां उन्हें मिल कर पीछे मुड़ कर अतीत का एक बार मुआयना भी करना था मुआवजा भी भरना था! वह दिन गए जब एक दूसरे के ऊपर दोषारोपण कर के और इल्ज़ाम देकर ख़ुद को दूध का धुला मान लेते थे! मगर आज बात ही कुछ और थी!
आज दूध का दूध पानी का पानी हो ही जाएगा! आख़िर कब तक लुका छिपी का खेल चलता रहेगा!
शिखर कशमकश में कि बात कैसे शुरू करे!'स्मृति कुछ कहना है तुमसे! '
स्मृति ने जवाब तो नहीं दिया मगर उसकी ओर प्रश्न सूचक नज़र डाली!
माफ करना मुझे स्मृति, अब हमारी राहें जुदा होने को हैं-कौन ग़लत, कौन सही कहना मुश्किल है, ज़रूरी भी नहीं- अब इन सवालों में होशियारी नहीं! तुम्हें ही नहीं दुखी ख़ुद को भी दुखी कर रहा हूं!
स्मृति जानती थी कैसे विस्फोट की अपेक्षा की जा सकती है! मन भारी था मगर बड़ी मुश्किल से एक हल्की, बहुत हल्की मुस्कान चेहरे पर लाई और बोली ' क्यों शिखर ,इतना सोचना क्या! जो कहना है कहो , मैं सुन रही हूं! ?'
'स्मृति अब हम दोनों के बीच ऐसी दूरियां आ गई हैं जिन्हें पाटना मुश्किल है! We should go for a divorce! जानता हूं तुम्हें दुख पहुंचा रहा हूं - हर तरह से तुम्हारी मदद करूंगा - मगर एक ही छत के नीचे हमारी ज़िंदगी खुशगवार नहीं हो सकती!'
स्मृति कुछ पल आंख झपकाए बिना उसकी ओर देखती रही- शिखर को लगा रो देगी, या उसे दोष देगी, या क्रोधित हो कर
उस पर चिल्लाएगी !
स्मृति ने ऐसा कुछ नहीं किया बल्कि संतुलित आवाज़ ने शिखर को चौंका दिया
' मेरे दुख की चिंता मत करना शिखर! I' ll be quite okay!
अपना दुख संभालो तुम, मेरे हाल से सरोकार रखने की ज़रूरत नहीं! मैं इतनी लाचार नहीं- जो मेरा है ही नहीं उस पर जान छिड़कने में मुझे कोई तुक नहीं दिखती !
बिलखने, सिसकने का फ़ायदा नहीं! बंधन तभी सुहाता है जब दोनों राज़ी हों! अब आज़ादी सिर्फ तुम्हें ही नहीं , मुझे भी प्यारी है!
वह ज़माना गया जब औरत गिड़गिड़ाकर माफ़ी मांगती और पनाह की भीख मांगती थी! मैं पढ़ी लिखी हूं , सक्षम हूं , अपना ख़याल रख सकती हूं! मुझे ऐसा कोई रिश्ता मंज़ूर नहीं जिसमें आदर सम्मान नहीं, जिसमें सिर्फ़ तुम्हारा वजूद दिखता हो -मेरे वजूद का नामो निशान नहीं!'
शिखर अचंभित..यह एक नया रूप स्मृति का!
कहां सिसकती छटपटाती नारी की थी तस्वीर उसके मन में-
कैसे अबला नारी का रूप यूं बदल गया!
एक नए सम्मान भाव का उदय हुआ उसके मन में स्मृति के लिए ! पर अब देर हो चुकी थी! अब स्मृति आज़ाद थी!
तलाक के काग़ज़ात पर दस्तखत न हुए हों पर दिलों ने उन काग़ज़ात पर मोहर लगा दी थी!